एक समय की बात है एक गाँव में एक बूढ़ी महिला रहती थी, जिसके पास कुछ भैंसें थीं और वह उन्हीं भैंसों का दूध बेचकर अपना जीवन-यापन करती थी। एक दिन उस गाँव में एक संत आए।
जब बूढ़ी महिला को यह बात पता चली तो वह भी उनके पास गई और बोली- महाराज… मैं अपने जीवन के अन्तिम पड़ाव पर पहुंच गई हुं और अपने सम्पूर्ण जीवन में मैंने किसी को गुरू नहीं बनाया। सुना है, निगुरे जीव को कभी भी सद्गति प्राप्त नहीं होती। इसलिए कृपा करके मुझे भी कोई गुरूमंत्र दे दीजिए, ताकि मैं अपने अगले जन्म को सुधार सकुं व सद्गति प्राप्त कर सकुं।
बूढ़ी महिला की यह बात सुनकर जाने क्यों उस संत को उस बूढी महिला से चिढ होने लगी। वे सोंचने लगे कि सारी उम्र भगवान की याद आई नहीं और अब बूढ़ापे में भजन-कीर्तन सूझ रहा है। ऐसे जीवों को तो कभी भी सद्गति प्राप्त होनी ही नहीं चाहिए। लेकिन चूंकि वह साधु अपनी चिढ दिखा नहीं सकता था, सो उसे महिला के साथ एक मजाक करने की सूझी। उसने उस बूढी महिला से कहा- माताजी… सारी उम्र तो आपको भगवान की याद आई नहीं क्योंकि सारी उम्र आप अपनी भैंसों का दूध दुहने और उसे बेचने में ही व्यस्त थीं। इसलिए आपके लिए सबसे अच्छा मंत्र यही है कि आप पहले की तरह ही अपनी भैंसों को दुहा करें और मंत्र के रूप में हमेंशा “भैंस का सींग, भैंस का सींग, भैंस का सींग“ यही जपा करें।
बूढ़ी महिला को लगा कि साधु बहुत ज्ञानी है, इसलिए उसे उसके अनुसार ही मंत्र दिया है, ताकि वह अपना काम करते हुए भी सदा मंत्र जाप कर सके और अपने जीवन को सद्गति की ओर ले जा सके। सो, वह बूढ़ी महिला गुरूमंत्र पाकर बहुत खुश हुई और जो भी कुछ उसके पास था, वह सबकुछ पूर्ण श्रृद्धा के साथ उस साधु को देकर अपने घर लौट आई। जबकि वे साधु उस गाँव में कुछ और दिन ठहरे और फिर वापस अपने आश्रम चले गए।
बूढ़ी महिला के हाथ तो जैसे स्वर्ग की चाबी लग गई थी। अब वह सुबह-शाम-दिन-रात उसी मंत्र यानी “भैंस का सींग, भैंस का सींग, भैंस का सींग“ का जाप करने लगी और उसका मन उस मंत्र में पूरी तरह से रम गया।
काफी समय बाद वही संत उसी गाँव के पास वाले गांव में आए, जिस गाँव में वह बूढ़ी महिला रहती है। जब उस बूढ़ी महिला को पता चला कि पडौस के गांव में उसके गुरूजी आए हैं, तो वह अपना सारा काम-काज छोडकर खुशी के मारे लगभग भागते हुए गुरूजी से मिलने जाने लगी।
लेकिन दोनों गांवों के बीच एक विशाल नदी थी, जिसे पार किए बिना एक गांव से दूसरे गांव नहीं जाया जा सकता था जबकि पिछले साल तेज बारिस होने की वजह से दोनों गावों को जोडने वाला पुल टूटकर बह गया था।
परिणामस्वरूप जब वह बूढ़ी महिला उस नदी पर पहुंची, तो नदी का तेज बहाव देखकर वह नदी के किनारे ही रूक गई। लेकिन जैसे ही नदी के उस पार खडे उसके गुरूजी उसे दिखाई दिए, वह भूल ही गई कि सामने एक नदी है जिसमें तेज बहाव के साथ पानी बह रहा है। उसे तो गुरूजी का दिया हुआ वही मंत्र याद आया और वही मंत्र जपते-जपते वह पानी पर ऐसे चलने लगी, जैसे कि जमीन पर चल रही हो।
उसे पानी पर चलता देखकर वे संत भी काफी आश्यर्चचकित हुए कि आखिर उस बूढि़या ने पानी पर चलने की सिद्धि कैसे प्राप्त कर ली लेकिन उन्होंने उस बूढि़या से इस संदर्भ में कोई चर्चा नहीं की बल्कि यही दिखाने की कोशिश की कि ये सारी सिद्धियां उनके पास भी हैं।
गुरूजी से मिलने के बाद उस बूढ़ी महिला ने गुरूजी से आग्रह किया कि-गुरूजी आप आज का भोजन मेरे घर करने का निमंत्रण स्वीकार करें।
गुरूजी ने उस बूढ़ी महिला से कहा कि- ठीक है। चलो आज तुम्हारे ही घर चल कर भोजन कर लेता हुँ।
लेकिन जब गुरूजी उस बूढ़ी महिला के साथ उसके घर की ओर चलने लगे तो बीच में फिर उस विशाल नदी को पार करना था। उस बूढ़ी महिला को तो गुरूजी के बताए हुए मंत्र पर अटल विश्वास था, इसलिए उसने उसी मंत्र यानी “भैंस का सींग, भैंस का सींग, भैंस का सींग“ को जपना शुरू कर दिया और उस विशाल नदी को पार करने लगी, लेकिन स्वयं गुरूजी, जिन्होंने उस बूढिया को वो मंत्र दिया था, उस पानी पर चलने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे।
******
भारतीय दर्शन की मान्यता है कि गुरू बिना ज्ञान नहीं मिल सकता और ज्ञान ही सफलता की कुंजी है। फिर इस बात से कोई फर्क नहीं पडता कि वह ज्ञान भौतिक सफलता के लिए है या आध्यात्मिक सफलता के लिए, लेकिन यदि आपको सफल होना है, तो आपको हमेंशा गुरू की जरूरत होती ही है और यहां “गुरू” शब्द से मेरा मतलब उस व्यक्ति से है, जो आपको आपकी समस्या के समाधान के रूप में शारीरिक, आर्थिक, मानसिक, वैचारिक किसी भी तरह की मामूली सी भी मदद कर दे, न कि धोती-कुर्ता पहने अथवा गैरूवां वस्त्र धारण किए किसी साधु से।
लेकिन गुरू वास्तव में देता क्या है?
यदि इस सवाल पर थोडा ध्यान दें, तो पाऐंगे कि गुरू, एक विश्वास या यदि और अधिक बेहतर शब्दों में कहें, तो एक आत्म-विश्वास के अलावा और कुछ नहीं देता।
गुरू केवल इतना विश्वास देता है कि आप जो कर रहे हैं या जो करना चाहते हैं, उसमें सफल हो सकते हैं और सफल होने का सही रास्ता क्या है, फिर इस बात से फर्क नहीं पडता कि वह रास्ता सही है या गलत अथवा वह रास्ता है भी या नहीं।
यदि आपको अपने गुरू के बताए रास्ते पर विश्वास हो जाए, तो भले ही गुरू द्वारा बताया गया रास्ता गलत ही क्यों न हो, आप उस रास्ते से भी सफल हो जाते हैं क्योंकि रास्ता या सफल होने का तरीका उतना महत्वपूर्ण नहीं होता जितना सफल हो जाने का विश्वास महत्वपूर्ण होता है और इस लघुकथा में एक गुरू ने उस बुढिया को गुरूमंत्र के रूप में केवल एक विश्वास ही दिया था, जिसके बल पर वह बुढिया पानी पर चल सकने में सक्षम हो गई।
इसलिए यदि आप भी कोई सफलता पाना चाहते हैं, तो किसी को गुरू बनाईए और उसके बताए रास्ते पर पूरी श्रृद्धा के साथ चलिए क्योंकि महत्वपूर्ण गुरू या उसके द्वारा बताया गया रास्ता नहीं है, महत्वपूर्ण है आपका विश्वास, ये विश्वास कि आपके गुरू द्वारा बताए गए रास्ते पर चलकर आप सफल हो जाएेंंगे और आप सचमुच सफल हो जाऐंगे क्योंकि गुरू आपको आपकी मंजिल की तरफ केवल एक ईशारा कर सकता है आपके साथ नहीं चल सकता।