Mahatma Gandhi Biography in Hindi – महात्मा गांधी ने अपनी आत्मकथा “सत्य व उसके प्रयोग” पुस्तक में अपने बारे में बहुत कुछ लिखा है, जिनसे हम गांधी जी के व्यक्त्वि और उनके जीवन में घटित होने वाली घटनाओं द्वारा समझ सकते हैं कि गांधी आखिर महात्मा गांधी कैसे बन गए।
अाज तक गांधी पर हजारों पुस्तकें लिखी गईं, सैकडों लोगों ने, जो कि गांधी के साथ रहा करते थे, गांधी के बारे में लिखा, लेकिन जो बातें इस पुस्तक में स्वयं गांधी ने लिखी हैं, वे बातें किसी भी अन्य व्यक्ति द्वारा लिखी गई पुस्तक में देखने को नहीं मिलतीं।
महात्मा गांधी की आत्मकथा में उल्लेख मिलता है कि वे पढाई-लिखाई में कोई विशेष अच्छे नहीं थे। केवल अपनी स्कूल की किताबें ठीक से पढ लें और अध्यापकों द्वारा याद करने के लिए दिए गए सबकों को याद कर लें, इतना भी उनसे ठीक से नहीं हो पाता था, इसलिए स्कूल के अलावा किसी अन्य किताब को पढने की उनकी कभी कोई इच्छा नहीं होती थी न ही कभी किसी अन्य पुस्तक को पढने का उन्होंने कोई प्रयास किया।
लेकिन एक बार उन्होंने श्रृवण पितृ भक्ति नाटक नाम की एक पुस्तक पढी जो कि उनके पिताजी की थी। वे उस पुस्तक से श्रृवण के पात्र से इतना प्रभावित हुए कि जिन्दगी भर श्रृवण की तरह मातृ-पितृ भक्त बनने की न केवल स्वयं कोशिश करते रहे, बल्कि अपने सम्पर्क में आने वाले सभी लोगों को ऐसा बनाने का भी प्रयास करते रहे।
इसी प्रकार से बचपन में उन्होंने “सत्यवादी राजा हरीशचन्द्र” का भी एक दृश्य नाटक देखा और उस नाटक के राजा हरीशचन्द्र के पात्र से वे इतना प्रभावित हुए कि जिन्दगी भर राजा हरीशचन्द्र की तरह सत्य बोलने का व्रत ले लिया।
राजा हरीशचन्द्र के पात्र से उन्होंने बालकपन में ही अच्छी तरह से समझ लिया था कि सत्य के मार्ग पर चलने में हमेंशा तकलीफें आती ही हैं लेकिन फिर भी सत्य का मार्ग नहीं छोडना चाहिए और राजा हरीशचन्द्र के नाटक के इस पात्र ने ही गांधीजी के सत्यान्वेषी बनने की नींव रखी। बालपन में ही सत्यान्वेषण से सम्बंधित उनके मन पर पडे हुए राजा हरीशचन्द्र के प्रभाव ने जीवनभर उन्हें सत्य का खोजी बनाए रखा और सत्य के सन्दर्भ में तरह-तरह के प्रयोग करवाता रहा और जो कि अन्तत: आगे चलकर भारत की आजादी का कारण बना।
गांधीजी अपने आपको हमेंशा सत्य का पुजारी कहा करते थे। उनका अनुभव था कि सत्य के पक्ष में खडा रहना हमेंशा आसान नहीं होता लेकिन किसी भी परिस्थिति में सत्य के पक्ष में खडा रहना ही सत्य की पूजा है। वास्तव में गांधीजी के लिए ‘सत्य‘ एक प्रकार का शौक था, जिसे वे पूरे जीवन भर अपने मनोरंजन की तरह प्रयोग में लेते रहे। उन्हें सत्य के साथ खेलने में मजा आता था। जब लोग अपनी किसी गलती को छिपाने के लिए झूठ बोलकर बचना चाहते थे, तब गांधीजी उसी गलती को सच बोलकर होने वाली प्रतिक्रिया को देखने में ज्यादा उत्सुक दिखाई पडते थे।
गांधीजी की आत्मकथा में एक और उल्लेख मिलता है कि वे जो कुछ भी पढते थे, उसमें से उन्हें जो अच्छा व उपयोगी लगता था, उसे वे याद रख लेते थे लेकिन जो उन्हें पसन्द नहीं आता था, उसे वे भूल जाया करते थे अथवा भुला दिया करते थे। गांधीजी का यही स्वभाव आगे चलकर बुरा न देखना, बुरा न सुनना और बुरा न बोलना के रूप में गांधी जी के तीन बन्दरों की तरह याद किया जाने लगा, लेकिन गांधीजी का अच्छे काे चुनने और बुरे को छोड देने का स्वभाव 13 – 14 साल जैसी किशोरावस्था में भी था।
गांधीजी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि यदि कोई उन्हें आत्महत्या करने की धमकी देता था, तो उन्हें उसकी धमकी पर कोई भरोसा नहीं होता था क्योंकि एक बार स्वयं गाधीजी आत्महत्या करने पर उतारू थे, उन्होंने कोशिश भी की लेकिन उन्होंने पाया कि आत्महत्या की बात कहना और आत्महत्या की कोशिश करना, दोनों में काफी अन्तर होता है।
गांधीजी इस सन्दर्भ में जिस घटना का उल्लेख करते हैं, उसके अनुसार एक बार गांधीजी को अपने एक रिश्तेदार के साथ बीडी पीने का शौक लग गया। क्योंकि उनके पास बीडी खरीदने के लिए पैसे तो होते नहीं थे, इसलिए उनके काकाजी बीडी पीकर जो ठूठ छोड दिया करते थे, गांधीजी उसी को चुरा लिया करते थे और अकेले में छिप-छिप कर अपने उस रिश्तेदार के साथ पिया करते थे।
लेकिन बीडी की ठूठ हर समय तो मिल नहीं सकती थी, इसलिए उन्होंने उनके घर के नौकर की जेब से कुछ पैसे चुराने शुरू किए। अब एक नई समस्या आने लगी कि चुराए गए पैसों से जो बीडी वे लाते थे, उसे छिपाऐं कहां। चुराए हुए पैसों से लाई गई बीडी भी कुछ ही दिन चली।
फिर उन्हे पता चला कि एक ऐसा पौधा होता है, जिसके डण्ठल को बीडी की तरह पिया जा सकता है। उन्हें बहुत खुशी हुई कि चलो अब न तो बीडी की ठूंठ उठानी पडेगी न ही किसी के पैसे चुराने पडेंगे, लेकिन जब उन्होंने उस डण्ठल को बीडी की तरह पिया, तो उन्हें कोई संतोष नहीं हुआ।
फलस्वरूप उन्हें अपनी पराधीनता अखरने लगी। उन्हें लगा कि उन्हें कुछ भी करना हो, उनके बडों की ईजाजत के बिना वे कुछ भी नहीं कर सकते। इसलिए उन दोनों ने सोंचा कि ऐसे पराधीन जीवन को जीने से कोई फायदा नहीं है, सो जहर खाकर आत्महत्या ही कर ली जाए। लेकिन फिर एक समस्या पैदा हो गई कि अब जहर खाकर आत्महत्या करने के लिए जहर कहां से लाया जाए?
चूंकि उन्होंने कहीं सुना था कि धतूरे के बीज को ज्यादा मात्रा में खा लिया जाए, तो मृत्यु हो जाती है, सो एक दिन वे दोनों जंगल में गए और धतूरे के बीच ले आए और आत्महत्या करने के लिए शाम का समय निश्चित किया। मरने से पहले वे केदारनाथ जी के मंदिर गए और दीपमाला में घी चढाया, केदारनाथ जी के दर्शन किए और एकान्त खोज लिया लेकिन जहर खाने की हिम्मत न हुई। उनके मन में तरह-तरह के विचार आने लगे:
- अगर तुरन्त ही मृत्यु न हुर्इ तो ?
- मरने से लाभ क्या है ?
- क्यों न पराधीनता ही सह ली जाए ?
आदि… आदि। लेकिन फिर भी दो-चार बीज खाए। अधिक खाने की हिम्मत न हुर्इ क्योंकि दोनों ही मौत से डरे हुए थे सो, दोनों ने निश्चय किया कि रामजी के मन्दिर जाकर दर्शन करके मन शान्त करें और आत्महत्या की बात भूल जाए।
गांधीजी के जीवन की इसी घटना जिसे स्वयं गांधीजी ने अनुभव किया था, के कारण ही उन्होंने जाना कि आत्महत्या करना सरल नहीं है और इसीलिए किसी के आत्महत्या करने की धमकी देने का उन पर कोई प्रभाव नहीं पडता था क्योंकि उन्हें अपने आत्महत्या करने की पूरी घटना याद आ जाती थी।
आत्महत्या से सम्बंधित इस पूरी घटना का परिणाम ये हुआ कि दोनों जूठी बीडी चुराकर पीने अथवा नौकर के पैसे चुराकर बीडी खरीदने व फूंकने की आदत हमेंशा के लिए भूल गए।
इस घटना के संदर्भ में गांधीजी का अनुभव ये रहा कि नशा कई अन्य अपराधों का कारण बनता है। यदि गांधीजी को बीडी पीने की इच्छा न होती, तो न तो उन्हें काकाजी की बीडी की ठूंठ चुरानी पडती न ही वे कभी बीडी के लिए नौकर की जेब से पैसे चुराते। उनकी नजर में बीडी पीने से ज्यादा बुरा उनका चोरी करना था जो कि उन्हें नैतिक रूप से नीचे गिरा रहा था।
इसी तरह से गांधीजी के जीवन में चोरी करने की एक और घटना है, जिसके अन्तर्गत 15 साल की उम्र में उन पर कुछ कर्जा हो गया था, जिसे चुकाने के लिए उन्होंने अपने भाई के हाथ में पहने हुए सोने के कडे से 1 ताेला सोना कटवाकर सुनार को बेचकर अपना कर्जा चुकाया था। इस बात का किसी को कोई पता नहीं था, लेकिन ये बात उनके लिए असह्य हो गई। उन्हें लगा कि यदि पिताजी के सामने अपनी इस चोरी की बात को बता देंगे, तो ही उनका मन शान्त होगा।
लेकिन पिता के सामने ये बात स्वीकार करने की उनकी हिम्मत न हुई। सो उन्होंने एक पत्र लिखा, जिसमें सम्पूर्ण घटना का उल्लेख था और अपने किए गए कार्य का पछतावा व किए गए अपराध के बदले सजा देने का आग्रह था। वह पत्र अपने पिता को देकर वे उनके सामने बैठ गए। पिता ने पत्र पढा और पढते-पढते उनकी आंखें नम हो गईं। उन्होंने गांधीजी को कुछ नहीं कहा। पत्र को फाड दिया और फिर से लौट गए।
उसी दिन गांधीजी को पहली बार अहिंसा की ताकत का अहसास हुअा क्योंकि यद्धपि उनके पिता ने उन्हें उनकी गलती के लिए कुछ भी नहीं कहा न ही कोई दण्ड दिया, बल्कि केवल अपने आंसुओं से उस पत्र को गीला कर दिया, जिसे गांधीजी ने लिखा था, और इसी एक घटना ने गांधीजी पर ऐसा प्रभाव डाला कि उन्होंने ऐसा कोई अपराध दुबारा नहीं करने की प्रतिज्ञा ले ली। यदि उस दिन, उस घटना के लिए गांधीजी के पिताजी ने गांधीजी के साथ मारपीट, डांट-डपट जैसी कोई हिंसा की होती, तो शायद हम आज उस गांधी को याद नहीं कर रहे होते, जिसे याद कर रहे हैं।
गांधीजी द्वारा अपनी आत्मकथा में लिखी गई ऐसी ही कई और घटनाऐं हैं, जिन्हें एक छोटे से Article में उल्लेखित करना तो किसी स्थिति में सम्भव नहीं है, लेकिन इस पोस्ट में उल्लेखित घटनाऐं स्वयं महात्मा गांधी द्वारा लिखी गई “सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा” से लिए गए हैं और यदि आप राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी के जीवन में घटी घटनाओं और उन घटनाओं के विषय में लिखे गए उनके विचारों को और अधिक गहराई से जानना चाहते हैं, तो आपको ये पुस्तक जरूर पढनी चाहिए, जिसे आप एक PDF EBook के रूप में Download कर सकते हैं और अपनी सुविधानुसार अपने Computer, Mobile या Tablet PC जैसे किसी भी PDF Reader Software द्वारा पढ सकते हैं।