काजर दै नहिं ऐ री सुहागिन। आँगुरि तो री कटैगी गँड़ासा।। नहिं पराग नहिं मधुर मधु नहिं विकास यहि काल। अली कली में ही बिन्ध्यो आगे कौन हवाल।। कर-मुँदरी की आरसी, प्रतिबिम्बित प्यौ पाइ। परति गाँठि दुरजन हिये, दई नई यह रीति।। सतसइया के दोहरा ज्यों नावक के तीर। देखन में छोटे लगैं घाव करैं गम्भीर।। है यह आजु बसन्त समौ, सुभरौसो न काहुहि कान्ह के जी कौ अंध कै गंध बढ़ाय लै जात है, मंजुल मारूत कुंज गली कौ। कैसेहुँ भोर मुठी मैं पर्यौ, समुझैं रहियौ न छुट्यौ नहिं नीकौ देखति बेलि उतैं बिगसी, … [Read more...]