Short Story with Moral Lesson – राजनगर में धनीराम नाम का एक धनवान सेठ रहता था। सेठ के एक पुत्र था जिसका नाम मंगल था।
उस सेठ की नगर में एक बहुत ही बड़ी हवेली थी। कहीं भी किसी प्रकार की कोई कमी नहीं थी, लेकिन सेठ के पुत्र मंगल के कोई संतान नही थी। धनीराम ने मंदिरो-मस्जिदों में बड़ी मिन्नते की।
एक दिन भगवान ने धनीराम की सुन ली और मंगल पिता बन गया। धनीराम ने दादा बनने की खुशी में एक भव्य भोज का आयोजन किया जिसमें सभी नगर वालों को न्योता भेजा गया। उसमें एक न्योता रामसुख को भी भेजा गया। रामसुख नगर का व्यापारी था, लेकिन कार्य की व्यस्तता इतनी ज्यादा थी कि वह अपने कपड़ो तक का ध्यान नहीं रख पाता था।
कोई अनजान व्यक्ति अगर रामसुख को एक नजर देख ले, तो उसे लगता कि रामसुख व्यापारी हो ही नहीं सकता। कोई भी एक नजर में देख कर रामसुख को नौकर ही समझ लेता था।
रामसुख को जब यह खबर मिली कि धनीराम ने दादा बनने कि खुशी में भव्य भोज का आयोजन किया है तो वह वैसी ही स्थिति में भोज में जा पहुँचा जैसा वह था।
धनीराम ने जब देखा तो रामसुख से पूछा, “रामसुख… यह क्या पहन कर आए हो। तुम्हे मालुम नहीं है क्या? मेरे दादा साहब बनने की खुशी में भोज का आयोजन किया गया है, और तुम तो भिखारी के वेश में ही यहाँ आ गए। यहाँ आए लोग जब तुम्हे इस तरह से देखेंगे तो यही कहेंगे कि मैंने भिखारियों को भी न्योता भेजा है। उनके मान-सम्मान का क्या होगा?“
रामसुख ने कहा, “नहीं… नहीं धनीराम, तुम दादा बने हो, इस खुशी में ध्यान ही नहीं रहा कि मैं कहाँ जा रहा हूँ। मैं तो तुम्हे बधाई देने आया था, इसलिए कपड़ों का ध्यान ही नहीं रहा लेकिन कपड़ो से क्या फर्क पड़ता है?“
धनीराम ने रामसुख से कहा, “फर्क पड़ता है, क्योंकि यहाँ तुम अकेले ही नहीं आए हो और भी लोग है जो मुझे दादा बनने कि बधाई देने आए है।“
रामसुख दु:खी मन से भोज से चला गया और अपने घर आकर उसने अपनी जरीदार कोट पहनी उस पर रेशमी दुप्पटा डाला और ऊँची पगड़ी पहन कर फिर से भोज में गया जहाँ भव्य भोज चल रहा था। वहाँ जाकर भोजन करने लगा। सबसे पहले रामसुख ने अपने दुप्पटे को खीर में भिगाया और बाद में अपनी जेब में मालपुए भरने लगा। कुछ देर बाद ही खीर का कटोरा लेकर उसने अपने ऊपर उड़ेल लिया।
यह देख कर धनीराम आया और रामसुख से पूछा, “रामसुख… यह क्या कर रहे हो तुम? पागलों की तरह हरकत करते हुए अपने कपड़े क्यों गंदे कर रहे हो?“
रामसुख ने धनीराम से कहा, “सेठजी… आपने मुझे थोडे ही न्योता दिया था। आपने तो इन कीमती कपड़ों को न्योता दिया था तो मैं इन्ही को भोजन करा रहा हूँ।“
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जब आप किसी को न्यौता देते हैं, तो बहुत कम लोग ऐसे होते हैं जो वास्तव में आपकी खुशी से खुश होकर आपके न्योते को स्वीकार करते हैं अन्यथा ज्यादातर लोग तो केवल औपचारिकता निभाते हैं, ताकि आपकी वजह से उनका कोई हित प्रभावित न हो जाए।
इसलिए जो लोग आपकी परवाह करते हैं, आपकी खुशी से खुश और आपके दु:ख से दु:खी हो जाते हैं, ऐसे लोगों को पहचानना और उन्हें उचित मान देना आपकी ही जिम्मेदारी है, अन्यथा आपके पास जो दो-चार ऐसे लोग हैं, वे आपसे हमेंशा के लिए दूर हो जाऐंगे।
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