Lord Krishna Story in Hindi- निषादराज हिरण्यधनु और माता रानी सुलेखा के द्वारा एक पुत्र हुआ, जिसका नाम “अभिद्युम्न” रखा गया। अभिद्युम्न कभी किसी से नही डरता था इसलिए लोग उसे “अभय” नाम से ही बुलाया करते थे। पाँच वर्ष की आयु मेँ अभिद्युम्न की शिक्षा की व्यवस्था कुलीय गुरूकुल में की गई।
अभिद्युम्न बाल्यवस्था में ही अस्त्र-शस्त्र विद्या में निपूर्ण हो गए। अभिद्युम्न की लगन और एकनिष्ठता को देखते हुए गुरू ने बालक का नाम अभिद्युम्न की जगह पर “एकलव्य” रख दिया। एकलव्य के युवा होने पर उनका विवाह एक निषाद की कन्या सुणीता से कर दिया गया। एकलव्य धनुर्विद्या की उच्च शिक्षा प्राप्त करना चाहता था। इसलिए उसने गुरू द्रोण के पास जाकर विधा सिखने की इच्छा जाहिर की, लेकिन गुरू द्रोण केवल ब्राह्मण और क्षत्रिय वर्ग को ही शिक्षा देते थे। गुरू द्रोण शूद्रों को शिक्षा देने के विराधी थे। महाराज हिरण्यधनु ने एकलव्य को बहुत समझाया कि गुरू द्रोण शूद्रों को शिक्षा नहीं देंगे, लेकिन एकलव्य ने अपने पिता को मना लिया कि उनकी शस्त्र विद्या से प्रभावित होकर आचार्य द्रोण स्वयं उसे अपना शिष्य बना लेंगे।
एकलव्य ने गुरूद्रोण के सामने जाकर शस्त्र विद्या सिखाने का आग्रह किया किन्तु गुरूद्रोण ने एकलव्य को आश्रम से भगा दिया। एकलव्य भी हार मानने वालों में से कहां था। एकलव्य ने वन में ही द्रोणाचार्य की एक मुर्ति बनाई और धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगा। धीरे-धीरे एकलव्य धनुर्विद्या में निपुणता प्राप्त कर ली।
एक समय द्रोणाचार्य अपने शिष्यों को वन में एक विद्या सिखाने के लिए जा रहे थे। साथ ही एक स्वान भी द्रोणाचार्य के साथ था। स्वान एकलव्य को देखकर भौकने लगा। स्वान के भौंकने से एकलव्य की साधना में बाधा पड़ रही थी। इसलिए एकलव्य ने अपने बाणों से कुत्ते का मुँह कर बंद कर दिया। एकलव्य ने इतनी सावधानी से बाण चलाये कि स्वान को किसी प्रकार की चोट नहीं लगी और उसका मुंह भी बन्द हो गया। डर के मरे स्वान द्रोणाचार्य के पास भागा। द्रोणाचार्य और उनके शिष्य ऐसी श्रेष्ठ धनुर्विद्या देख आश्चर्य में पड़ गए।
द्रोणाचार्य और उनके शिष्य उस महान धुनर्धर को नजदिक से देखना चाहते थे। द्रोणाचार्य उस महान धुनर्धर एकलव्य को देख कर चकित रह गए। जिस धनुर्विद्या को वे केवल क्षत्रिय और ब्राह्मणोँ तक सीमित रखना चाहते थे, उसे शूद्रों के हाथों में जाता देख उन्हें चिंता होने लगी।
उसी समय द्रोणाचार्य को एक बात यद आ गई कि अर्जुन को दुनियां का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाना है। द्रोणाचार्य ने एकलव्य से पूछा, ‘’ऐ बालक तुमने यह धनुर्विद्या किससे सीखी? ‘’
एकलव्य ने कहा, ‘’गुरूवर मैंने यह धनुर्विद्या आपसे सिखी है।
द्रोणाचार्य चकित रह गए लेकिन आचार्य ने एकलव्य से कहा, मैंने तुम्हे धनुर्विद्या नही सिखाई तो तुमने कैसे सिखी?
एकलव्य ने कहा, मैंने आपकी मुर्ति बनाकर यह धनुर्विद्या सिखी है।
द्रोणाचार्य ने एकलव्य से गुरू दक्षिणा देने को कहा तो एकलव्य ने कहा, गुरूवर क्या चाहिए आपको गुरूदक्षिणा में।
द्रोणाचार्य ने कहा, तुम्हारे दाएँ हाथ का अगूंठा।
एकलव्य ने तुरन्त ही अपना दाएँ हाथ का अगूंठा द्रोणाचार्य को दे दिया।
राजकुमार एकलव्य अंगुष्ठ बलिदान के बाद एकलव्य अपने साधनापूर्ण कौशल से बिना अंगूठे के धनुर्विद्या में पुन: दक्षता प्राप्त कर लेता है। एकलव्य ने अपनी दक्षता के बल पर ही निषाद भीलों की एक सशक्त सेना को गठित किया और निषाद वंश का राजा बनने के बाद एकलव्य ने जरासंध की सेना की सहायता करने के लिए श्रीकृष्ण के राज्य मथुरा पर आक्रमण किया और यादव सेना का लगभग सफाया कर दिया था। जब श्रीकृष्ण ने केवल चार अंगुलियों के सहारे धनुष बाण चलाते हुए एकलव्य को देखा तो उन्हें इस दृश्य पर विश्वास नहीं हुआ। एकलव्य अकेले ही सैकड़ों यादव वंशी योद्धाओं को रोकने में सक्षम था। इसलिए भगवान श्रीकृष्ण ने छल से एकलव्य का वध कर दिया। एकलव्य का पुत्र केतुमान महाभारत युद्ध में भीम के हाथ से मारा गया था।
जब महाभारत का युद्ध समप्त हुआ तब भगवान श्रीकृष्ण ने माना की एकलव्य का वध न किया जाता तो एकलव्य पूरी यादव सेना का नाश कर देता।
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