Lal Bahadur Shastri in Hindi – श्री लाल बहादुर शास्त्री का जन्म 2 अक्टूबर 1901 को उत्तर प्रदेश के वाराणसी से सात मील दूर एक छोटे से रेलवे टाउन, मुगलसराय में हुआ था।
उनके पिता एक स्कूल शिक्षक थे, जिनकी मृत्यु उसी समय हो गई थी जब लाल बहादुर शास्त्री केवल डेढ़ वर्ष के थे। इसलिए उनकी मॉं लालबहादुर सहित अपने तीनों बच्चों के साथ अपने पिता के घर रहने लगीं, जो कि एक बहुत ही छोटे से शहर में रहते थे।
चूंकि इस छोटे से शहर में लाल बहादुर शास्त्री को अच्छी शिक्षा प्राप्त नहीं हो सकती थी, इसलिए उनकी माँ ने उन्हें वाराणसी में उनके चाचा के साथ रहने के लिए भेज दिया गया, ताकि वे उच्च विद्यालय की शिक्षा प्राप्त कर सकें, जहां सभी लोग उन्हें नन्हे के नाम से पुकारते थे।
अक्सर वे कई मील की दूरी नंगे पांव से ही तय कर विद्यालय जाते थे, यहाँ तक की भीषण गर्मी में जब सड़कें अत्यधिक गर्म हुआ करती थीं तब भी उन्हें ऐसे ही जाना पड़ता था।
लाल बहादुर शास्त्री बचपन से ही बडे दृढ निश्चयी थे और इस बात का पता उनके बचपन की एक घटना से चलता है।
लाल बहादुर शास्त्री जब थोडे बडे हुए तो उन्हें भी लगने लगा कि भारत को विदेशी दासता से मुक्ति मिलनी ही चाहिए। फलस्वरूप आजादी के लिए देश के संघर्ष में अधिक रुचि रखने लगे और जब महात्मा गांधी ने भारत में रहने वाले उन राजाओं की निंदा की, जो कि भारत में ब्रिटिश शासन का समर्थन कर रहे थे, तो लाल बहादुर शास्त्री गांधीजी से काफी प्रभावित हुए और मात्र 11 साल की उम्र में ही उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर कुछ करने का मन बना लिया और जब गांधी जी ने असहयोग आंदोलन में शामिल होने के लिए अपने देशवासियों से आह्वान किया, तो मात्र 16 साल की उम्र में गांधीजी के आह्वान पर उन्होंने अपनी अपनी पढ़ाई छोड़ कर असहयोग आन्दोलन में जोर-शोर से सहयोग दिया।
पढाई छोडने के अपने निर्णय पर वे इतने अडिग थे कि उनके पूरे परिवार, सगे-संबंधियों व मित्रों के लाख समझाने के बावजूद उन्होंने किसी की बात नहीं मानी और पढाई छोडकर पूरे मन से असहयोग आन्दोलन का समर्थन किया। इस घटना से उनके सभी करीबी लोगों को यह पता चल गया कि एक बार मन बना लेने के बाद वे अपना निर्णय कभी नहीं बदलेंगें क्योंकि बाहर से विनम्र दिखने वाले लाल बहादुर अन्दर से चट्टान की तरह दृढ़ हैं।
लाल बहादुर शास्त्री ने न केवल आजादी से पहले बल्कि आजादी के बाद भी भारत के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान दिया था। शास्त्री जी जितना दृढ निश्चियी थे, उतना ही नरम दिल भी थे और इससे सम्बंधित एक घटना का अक्सर उल्लेख भी किया जाता है जिसके अन्तर्गत कांग्रेस के शासन काल में जब वे रेल मंत्री थे, तब एक ट्रेन दुर्घटना हो गई थी और उस घटना से शास्त्री जी इतने आहत हुए, कि उन्होंने ये कहकर अपने मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया कि- मेरे रेलमंत्री रहते हुए रेल से सम्बंधित होने वाली किसी भी घटना के लिए मैं ही जिम्मेदार हुँ।
देश एवं संसद ने उनके इस अभूतपूर्व पहल को काफी सराहा। तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने इस घटना पर संसद में बोलते हुए लाल बहादुर शास्त्री की ईमानदारी एवं उच्च आदर्शों की काफी तारीफ की। उन्होंने कहा कि उन्होंने लाल बहादुर शास्त्री का इस्तीफा इसलिए नहीं स्वीकार किया है कि जो कुछ हुआ वे इसके लिए जिम्मेदार हैं बल्कि इसलिए स्वीकार किया है क्योंकि इससे संवैधानिक मर्यादा में एक मिसाल कायम होगी। रेल दुर्घटना पर लंबी बहस का जवाब देते हुए लाल बहादुर शास्त्री ने कहा-
शायद मेरे लंबाई में छोटे होने एवं नम्र होने के कारण लोगों को लगता है कि मैं बहुत दृढ नहीं हो पा रहा हूँ। यद्यपि शारीरिक रूप से में मैं मजबूत नहीं हूं लेकिन मुझे लगता है कि मैं आंतरिक रूप से इतना कमजोर भी नहीं हूँ।
लाल बहादुर शास्त्री, महात्मा गांधी की राजनीतिक शिक्षाओं से अत्यंत प्रभावित थे और अपने गुरु महात्मा गाँधी के ही लहजे में एक बार उन्होंने कहा था कि- मेहनत प्रार्थना करने के समान है।
***1***
एक बार पूर्व प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री कपड़े की एक दुकान में साडि़यां खरीदने गए। दुकान का मालिक शास्त्री जी को देख बेहद प्रसन्न हुआ। उसने उनके आने को अपना सौभाग्य माना और उनका स्वागत-सत्कार किया।
शास्त्री जी ने उससे कहा कि वे जल्दी में हैं और उन्हें चार-पांच साडि़यां चाहिए।
दुकान का मैनेजर शास्त्री जी को एक से बढ़ कर एक साडि़यां दिखाने लगा। सभी साडि़यां काफी कीमती थीं। शास्त्री जी बोले- भाई, मुझे इतनी महंगी साडि़यां नहीं चाहिए। कम कीमत वाली दिखाओ।
इस पर मैनेजर ने कहा- सर… आप इन्हें अपना ही समझिए, दाम की तो कोई बात ही नहीं है। यह तो हम सबका सौभाग्य है कि आप पधारे।
शास्त्री जी उसका आशय समझ गए। उन्होंने कहा- मैं तो दाम देकर ही लूंगा। मैं जो तुम से कह रहा हूं उस पर ध्यान दो और मुझे कम कीमत की साडि़यां ही दिखाओ और उनकी कीमत बताते जाओ।
तब मैनेजर ने शास्त्री जी को थोड़ी सस्ती साडि़यां दिखानी शुरू कीं। शास्त्री जी ने कहा- ये भी मेरे लिए महंगी ही हैं। और कम कीमत की दिखाओ।
मैनेजर को एकदम सस्ती साड़ी दिखाने में संकोच हो रहा था। शास्त्री जी इसे भांप गए। उन्होंने कहा- दुकान में जो सबसे सस्ती साडि़यां हों, वो दिखाओ। मुझे वही चाहिए।
आखिरकार मैनेजर ने उनके मनमुताबिक साडि़यां निकालीं। शास्त्री जी ने उनमें से कुछ चुन लीं और उनकी कीमत अदा कर चले गए। उनके जाने के बाद बड़ी देर तक दुकान के कर्मचारी और वहां मौजूद कुछ ग्राहक शास्त्री जी की सादगी की चर्चा करते रहे।
***2***
शास्त्री जी जब 1964 में प्रधानमंत्री बने, तब उन्हें सरकारी आवास के साथ ही इंपाला शेवरले कार मिली, जिसका उपयोग वह न के बराबर ही किया करते थे। वह गाड़ी किसी राजकीय अतिथि के आने पर ही निकाली जाती थी।
एक बार उनके पुत्र सुनील शास्त्री किसी निजी काम के लिए इंपाला कार ले गए और वापस लाकर चुपचाप खड़ी कर दी। शास्त्रीजी को जब पता चला तो उन्होंने ड्राइवर को बुलाकर पूछा कि- कल कितने किलोमीटर गाड़ी चलाई गई ?
और जब ड्राइवर ने बताया कि चौदह किलोमीटर, तो उन्होंने निर्देश दिया- लिख दो, चौदह किलोमीटर प्राइवेट यूज।
शास्त्रीजी यहीं नहीं रुके बल्कि उन्होंने अपनी पत्नी को बुलाकर निर्देश दिया कि उनके निजी सचिव से कह कर वह सात पैसे प्रति किलोमीटर की दर से सरकारी कोष में पैसे जमा करवा दें।
***3***
शास्त्री जी को खुद कष्ट उठाकर दूसरों को सुखी देखने में जो आनंद मिलता था, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता।
एक बार जब शास्त्रीजी रेल मंत्री थे और बम्बई जा रहे थे। उनके लिए प्रथम श्रेणी का डिब्बा लगा था। गाड़ी चलने पर शास्त्रीजी बोले- डिब्बे में काफ़ी ठंडक है, वैसे बाहर गर्मी है।
उनके पी.ए. कैलाश बाबू ने कहा- जी, इसमें कूलर लग गया है।
शास्त्रीजी ने पैनी निगाह से उन्हें देखा और आश्चर्य व्यक्त करते हुए पूछा-
कूलर लग गया है?… बिना मुझे बताए? आप लोग कोई काम करने से पहले मुझसे पूछते क्यों नहीं? क्या और सारे लोग जो गाड़ी में चल रहे हैं, उन्हें गरमी नहीं लगती होगी?
शास्त्रीजी ने कहा- कायदा तो यह है कि मुझे भी थर्ड क्लास में चलना चाहिए, लेकिन उतना तो नहीं हो सकता, पर जितना हो सकता है उतना तो करना चाहिए।
उन्होंने आगे कहा- बड़ा गलत काम हुआ है। आगे गाड़ी जहाँ भी रुके, पहले कूलर निकलवाइए।
मथुरा स्टेशन पर गाड़ी रुकी और कूलर निकलवाने के बाद ही गाड़ी आगे बढ़ी। आज भी फर्स्ट क्लास के उस डिब्बे में जहाँ कूलर लगा था, लकड़ी जड़ी है।
***4***
भारत के सब प्रधानमंत्रियों में शास्त्री जी बिल्कुल अलग ही थे। उनका जीने का तरीका आम आदमी जैसा ही था। वो मंत्री बने तो सरकारी वाहन तो मिला, लेकिन अपने निजी काम के लिए उन्होंने कभी भी उस वाहन का उपयोग नही किया जिससे सम्बंधित एक और प्रेरक घटना अग्रानुसार है।
एक दिन शास्त्री जी अपने किसी निजी काम से घोडागाडी में बैठ कर कहीं जा रहे थे। जब वो नीचे उतरे तो घोडागाडी वाले ने उनसे दो रुपया मांगा। शास्त्री को मालुम था कि किराया केवल डेढ रुपया ही होता है, तो मात्र आठ आने के लिए वे उस घोडागाडी वाले से उलझ पडे। दोनों के बीच चलती बहस को देख कर कुछ लोग इकठ्ठे हो गये। लोगों ने पहचान लिया, कोइ बोला- ये तो लाल बहादूर शास्त्री हैं…
ये बात सुनते ही घोडागाडी वाला शरमा गया, शास्त्री के पैर पड गया और पैसे लेने से इन्कार करने लगा। लेकिन शास्त्री जी ने उसे डेढ रूपया दिया जो कि उसका वाजिब किराया होता था और चले गये।
***5***
एक बार शास्त्रीजी की अलमारी साफ़ की गई और उसमें से अनेक फटे पुराने कुर्ते निकाल दिये गए। लेकिन शास्त्रीजी ने वे कुर्ते वापस मांगे और कहा- अब नवम्बर आयेगा, जाड़े के दिन होंगे, तब ये सब काम आयेंगे। ऊपर से कोट पहन लूँगा न।
शास्त्रीजी का खादी के प्रति अनुराग ही था कि उन्होंने फटे पुराने समझ हटा दिये गए कुर्तों को सहेजते हुए कहा- ये सब खादी के कपड़े हैं। बड़ी मेहनत से बनाए हैं बीनने वालों ने। इसका एक-एक सूत काम आना चाहिए।
इस पुस्तक के लेखक और शास्त्री जी के पुत्र ने बताया कि शास्त्रीजी की सादगी और किफायत का यह आलम था कि एक बार उन्होंने अपना फटा हुआ कुर्ता अपनी पत्नी को देते हुए कहा- इनके रूमाल बना दो।
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शास्त्री जी बचपन से ही बडे स्वाभीमानी थे और अक्सर उनके स्वाभिमान से सम्बंधित कुछ घटनाऐं पढने, सुनने में में आती है, जिनमें से गंगा नदी को तैरकर पार करने की घटना को प्रेरक घटनाओं के रूप में सर्वाधिक उल्लेखित किया जाता है।
घटना ये थी कि एक बार शास्त्री जी अपने कुछ मित्रों के साथ गंगा नदी के पार मेला देखने गए। शाम को वापस लौटते समय जब सभी दोस्त नदी किनारे पहुंचे तो शास्त्री जी ने नाव के किराये के लिए जब अपनी जेब में हाथ डाला तो उनकी जेब में एक पाई भी नहीं थी, लेकिन शास्त्री जी ने ये बात अपने मित्रों से नहीं कही बल्कि वे उनसे बोले कि वे थोडी देर और मेला देखेंगे और बाद में आऐंगे। चूंकि शाम हो चुकी थी, इसलिए उनके सभी मित्र उन्हें वहीं छोडकर चले गए।
जब उनके मित्रों की नाव उनकी आँखों से ओझल हो गई तब उन्होंने अपने कपड़े उतारकर अपने सिर पर लपेट लिया और नदी में उतर गए। उस समय नदी उफान पर थी। बड़े-से-बड़ा तैराक भी आधे मील चौड़े पाट को पार करने की हिम्मत नहीं कर रहा था। पास खड़े मल्लाहों ने भी उन्हें रोकने की कोशिश की, लेकिन दृढ निश्चयी शास्त्री जी ने किसी की न सुनी और किसी भी खतरे की परवाह किए बिना वे नदी में तैरने लगे।
पानी का बहाव तेज़ था और नदी भी काफी गहरी थी। रास्ते में एक नाव वाले ने उसे अपनी नाव में सवार होने के लिए कहा लेकिन शास्त्री जी ने उसकी बात भी नहीं सुनीं, वे नहीं रूके बल्कि तेज बहाव में भी तैरते रहे और थोडी देर बाद वे सकुशल दूसरी ओर पहुँच गए।
शास्त्रीजी चाहते तो नदी पार करने के लिए अपने दोस्तों से किराया उधार ले सकते थे, अथवा नदी में तैरते समय जो नाव नदी में थी, उसमें चढने के लिए स्वयं नाव वाले ने कहा, लेकिन उनका स्वाभिमान न तो उन्हें अपने मित्रों से उधार लेने की की अनुमति नहीं दे रहा था न ही बिना पैसा दिए नाम में चढने की।
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शास्त्री जी के जीवन की एक और घटना का उल्लेख मिलता है, जब शास्त्री जी अपने दोस्तों के साथ एक बगीचे में फूल तोड़ने के लिए घुस गए। उनके दोस्तों ने बहुत सारे फूल तोड़कर अपनी झोलियाँ भर लीं, लेकिन शास्त्री जी उन सभी में सबसे छोटे और कमज़ोर थे, इसलिए वे एक भी फूल न तोड सके।
घटना भी ऐसी हुई कि जैसे ही उन्होंने उस बगीचे से पहला फूल तोड़ा, बगीचे का माली आ पहुँचा। दूसरे लड़के तो भागने में सफल हो गए लेकिन शास्त्री जी सबसे छोटे व कमजोर होने की वजह से माली के हत्थे चढ़ गया। बहुत सारे फूलों के टूट जाने और दूसरे लड़कों के भाग जाने के कारण माली बहुत गुस्से में था। उसने अपना सारा क्रोध उस छोटे से छः साल के शास्त्री जी पर निकाला और उसे पीट दिया। मासूम से शास्त्री जी ने माली से कहा– आप मुझे इसलिए पीट रहे हैं क्योकि मेरे पिता नहीं हैं!
यह सुनकर माली का क्रोध जाता रहा। वह बोला– बेटे, पिता के न होने पर तो तुम्हारी जिम्मेदारी और अधिक हो जाती है।
माली की मार खाने पर तो बालक शास्त्री जी ने एक आंसू भी नहीं बहाया था लेकिन यह माली की ये बात सुनकर वे बिलखकर रो पड़े। यह बात उसके दिल में घर कर गई और उसने इसे जीवन भर नहीं भुलाया। उसी दिन से बालक शास्त्री जी ने अपने ह्रदय में यह निश्चय कर लिया कि वे कभी भी ऐसा कोई काम नहीं करेंगे, जिससे किसी का कोई नुकसान हो।
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लाल बहादुर शास्त्री देश के प्रधानमंत्री बनने वाले ऐसे सरल और साधारण व्यक्ति थे जिनके जीवन का आदर्श प्रधानमंत्री बनने के बाद भी वही रहा। भारत में बहुत कम लोग ऐसे हुए हैं जिन्होंने समाज के बेहद साधारण वर्ग से अपना जीवन शुरू कर देश के सबसे पड़े पद को प्राप्त किया। शास्त्री जी को अपने देशवासियों से बहुत प्रेम था और उनके इसी देशप्रेम से सम्बंधित उनके जीवन से जुडी हुई एक और प्रेरक घटना है।
स्वतंत्रता संग्राम के दौरान लाला लाजपतराय ने सर्वेंट्स ऑफ इंडिया सोसाइटी की स्थापना की थी जिसका उद्देश्य गरीब पृष्ठभूमि से आने वाले स्वतंत्रता सेनानियों को आर्थिक सहायता प्रदान करवाना था।
आर्थिक सहायता पाने वालों में लाल बहादुर शास्त्री भी थे। उनको घर का खर्चा चलाने के लिए सोसाइटी की तरफ से 50 रुपए प्रति माह दिए जाते थे। एक बार उन्होंने जेल से अपनी पत्नी ललिता को पत्र लिखकर पूछा कि- क्या उन्हें ये 50 रुपए समय से मिल रहे हैं और क्या ये घर का खर्च चलाने के लिए पर्याप्त हैं ?
ललिता शास्त्री ने तुरंत जवाब दिया कि- ये राशि उनके लिए काफी है। वो तो सिर्फ 40 रुपये ख़र्च कर रही हैं और हर महीने 10 रुपये बचा रही हैं।
लाल बहादुर शास्त्री ने तुरंत सर्वेंट्स ऑफ़ इंडिया सोसाइटी को पत्र लिखकर कहा कि- उनके परिवार का गुज़ारा 40 रुपये में हो जा रहा है, इसलिए उनकी आर्थिक सहायता घटाकर 40 रुपए कर दी जाए और बाकी के 10 रुपए किसी और जरूरतमंद को दे दिए जाएं।
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शास्त्री जी के जीवन में कभी भी किसी बात का कोई अहंकार नहीं रहा और इस बात को शास्त्री जी के बेटे अनिल शास्त्री निम्न वृतांत द्वारा साबित करते हैं जिन्हें उन्होंने अपनी पुस्तक में वर्णित किया है-
एक बार रात के भोजन के बाद उनके पिता ने उन्हें बुलाकर कहा कि- मैं देख रहा हूँ कि आप अपने से बड़ों के पैर ढंग से नहीं छू रहे हैं। आप के हाथ उनके घुटनों तक जाते हैं और पैरों को नहीं छूते।
अनिल ने अपनी ग़लती नहीं मानी और कहा कि- आपने शायद मेरे भाइयों को ऐसा करते हुए देखा होगा।
इस पर शास्त्री जी झुके और अपने 13 साल के बेटे के पैर छूकर बोले कि- इस तरह से बड़ों के पैर छुए जाते हैं।
उनका ये करना था कि अनिल रोने लगे। वो कहते हैं कि- तब का दिन है और आज का दिन, मैं अपने बड़ों के पैर उसी तरह से छूता हूँ जैसे उन्होंने सिखाया था।
एक बच्चे के पैर छू लेने में भी जिस व्यक्ति को कोई हीनता महसूस न होती हो, वही व्यक्ति अहंकार रहित माना जा सकता है और ये घटना साबित करती है कि शास्त्री जी केवल बडे पदों पर ही नहीं पहुंचे थे, बल्कि वो वास्तव में हृदय से भी काफी बडे थे, जिनके लिए पद व उम्र में छोटे व बडे दोनों एक समान थे।
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लाल बहादुर शास्त्री जी इतना सादगी भरा जीवन जीते थे कि वे देश के प्रधानमंत्री होते हुए भी आम लोगों के बीच आम लोगों की तरह रच-बस जाते थे और लोगों को अन्दाजा तक नहीं होता था कि उनके सामने देश का प्रधानमंत्री खडा है। इससे सम्बंधित एक घटना का जिक्र हम पहले भी कर चुके हैं, जिसमें शास्त्री जी मात्र आठ आने के लिए रिक्सेवाले से उलझ पडे थे और रिक्सेवाले को अन्त तक पता नहीं था कि वो किससे झगड रहा है। ऐसी ही एक घटना और भी है।
उस समय लालबहादुर शास्त्री भारत के गृह मंत्री थे और जाने-माने पत्रकार कुलदीप नैयर उनके प्रेस सचिव थे। कुलदीप नैयर याद करते हुए बताते हैं कि एक बार वो और शास्त्री जी महरोली से एक कार्यक्रम में भाग लेकर लौट रहे थे। एम्स के पास उन दिनों एक रेलवे क्रॉसिंग हुआ करती थी जो किसी ट्रेन के आने का समय होने की वजह से उस समय बंद थी।
शास्त्री जी ने देखा कि बगल में गन्ने का रस निकाला जा रहा है। उन्होंने कहा कि- जब तक फाटक खुलता है, क्यों न गन्ने का रस पिया जाए।
और इससे पहले कि कुलदीप नैयर कुछ कहते, वो खुद दुकान पर गए और अपने साथ-साथ कुलदीप, सुरक्षाकर्मी और ड्राइवर के लिए भी गन्ने के रस का ऑर्डर किया।
दिलचस्प बात ये है कि किसी ने उन्हें पहचाना नहीं, यहां तक कि गन्ने का रस बेचनेवाले ने भी नहीं।
इस घटना से हम समझ सकते हैं कि वे कितने सादगी भरा जीवन जीते थे। इतना ही नहीं, उनमें अपने प्रधानमंत्री होने का भी कोई अहंकार नहीं था, इसीलिए तो वे स्वयं ही न केवल अपने लिए बल्कि अपने सुरक्षाकर्मी के लिए भी गन्ने के रस का ऑडर दे आए।
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शास्त्री जी के सादे और ईमानदारी भरे जीवन से सम्बंधित एक और घटना का जिक्र मिलता है कि शास्त्री जी के प्रधानमंत्री बनने तक उनका अपना घर तो क्या एक कार तक नहीं थी। एक बार उनके बच्चों ने उन्हें उलाहना दिया कि- अब आप भारत के प्रधानमंत्री हैं। कम से कम अब आपके पास अपनी एक कार तो होनी ही चाहिए।
उस ज़माने में एक फ़िएट कार 12,000 रुपए में आती थी। उन्होंने अपने एक सचिव से कहा कि- जरा देखें मेरे बैंक खाते में कितने रुपए हैं?
सचिव ने बताया कि उनका बैंक बैलेंस मात्र 7,000 रुपए था। जब शास्त्री जी के बच्चों को पता चला कि शास्त्री जी के पास कार खरीदने के लिए पर्याप्त पैसे नहीं हैं तो उन्होंने कहा कि- कार मत खरीदिए।
लेकिन शास्त्री जी ने कहा कि- बाकी के पैसे बैंक से लोन लेकर जुटा लेंगे।
और उन्होंने पंजाब नेशनल बैंक से कार खरीदने के लिए 5,000 रुपए का लोन लिया। हालांकि एक साल बाद लोन चुकाने से पहले ही उनका निधन हो गया जिसे बाद में उनकी पत्नी ने चार साल बाद तक अपनी पेंशन से चुकाया। शास्त्री जी की ये कार आज भी दिल्ली के लाल बहादुर शास्त्री मेमोरियल में रखी हुई है और दूर- दूर से लोग इसे देखने आते हैं।
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शास्त्री जी प्रधानमंत्री बनने से पहले जैसे थे, प्रधानमंत्री बनने के बाद भी उनके स्वभाव या विचारों में कोई परिवर्तन नहीं आया था और इसका उल्लेख स्वयं शास्त्री जी ने एक घटना के दौरान किया था।
बात साल 1964 की है, जब शास्त्री जी प्रधानमंत्री बने तो उनके बेटे अनिल शास्त्री दिल्ली के सेंट कोलंबस स्कूल में पढ़ रहे थे। उस जमाने में आज की तरह पैरेंट्स-टीचर मीटिंग नहीं हुआ करती थी, लेकिन अभिभावकों को छात्र का रिपोर्ट कार्ड लेने के लिए जरूर बुलाया जाता था।
शास्त्री ने भी तय किया कि एक अभिभावक की तरह वो भी अपने बेटे का रिपोर्ट कार्ड लेने स्वयं उनके स्कूल जाएंगे। स्कूल पहुंचने पर वो स्कूल के गेट पर ही उतर गए। हालांकि सिक्योरिटी गार्ड ने कहा कि वो कार को स्कूल के परिसर में ले आएं, लेकिन उन्होंने मना कर दिया।
शास्त्री जी के बेटे की कक्षा कक्षा 11 बी पहले माले पर थी। शास्त्री जी खुद चलकर उनकी कक्षा में गए, जहां क्लास टीचर रेवेरेंड टाइनन उन्हें वहां देखकर हतप्रभ रह गए और बोले- सर… आपको रिपोर्ट कार्ड लेने यहां आने की जरूरत नहीं थी। आप किसी को भी भेज देते।
शास्त्री का जवाब था- मैं वही कर रहा हूं जो मैं पिछले कई सालों से करता आया हूं और आगे भी करता रहूंगा।
रेवेनेंड टाइनन ने कहा- लेकिन अब आप भारत के प्रधानमंत्री हैं।
शास्त्री जी मुस्कराए और बोले- ब्रदर टाइनन… मैं प्रधानमंत्री बनने के बाद भी नहीं बदला, लेकिन लगता है आप बदल गए हैं।
ये घटना स्वयं बताती है कि शास्त्रीजी प्रधानमंत्री बनने के बावजूद अपने घरेलू कर्तव्यों को स्वयं ही निभाया करते थे। यानी प्रधानमंत्री बनने के बाद भी वे वैसे ही थे, जैसे प्रधानमंत्री बनने से पहले थे।
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जिन लोगों को इस दुनियां में बडे काम करने होते हैं, वे अक्सर स्वाभिमान, दृढ निश्चयी व ऐसे ही अनेक गुणों से भरे होते हैं।
लाल बहादुर शास्त्री को बचपन में एक विशेष प्रकार की बीमारी हो गई थी, जिसे सूखे की बीमारी कहा जाता है और इस बीमारी की वजह से ही उनका शारीरिक विकास ठीक से नहीं हो पाया था। जानकर हैरानी होती है कि उनका कम मात्र 5 फीट व वजन कुल 39 किलोग्राम था, लेकिन अपने छोटे कद व कम वजन के बावजूद वे बहुत बडे-बडे काम कर गए, और उनके जीवन से आज भी प्रेरणा ली जाती है।
शास्त्री जी, गांधी जी से केवल प्रभावित ही नहीं थे, बल्कि वे उनके आदर्शों का पूरी तरह से अनुसरण भी करते थे और सादा जीवन उच्च विचार उन्हीं में से एक ऐसा आदर्श है, जो शास्त्री जी के सम्पूर्ण जीवन में झलकता है। यदि गांधीजी के सादा जीवन उच्च विचार को मूर्त रूप में समझना हो, तो शास्त्रीजी के जीवन से समझा जा सकता है।
Agar Shastriji ki soach sabhi bhartiya apna kar kaam kare, yeah bharat SONE KA HAATHI kahlayega.
Lal bahadur shshtri good luck
स्वर्गीय श्री लाल बहादुर शास्त्री जी को कोटि कोटि नमन
Very good
बहुत अच्छा संकलन
Best pm of india since ever
Incredible Man
Best Article Of this man Thanks