चिंता से चतुराई घटे, दु:ख से घटे शरीर।
पा किये लक्ष्मी घटे, कह गये दास कबीर।।
कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर।
ना काहु से दोस्ती, न काहू से बैर।।
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब।
पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगो कब।।
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।।
ऐसी बानी बोलिये, मन का आपा खोय।
औरन को शीतल करै, आपौ शीतल होय।।
अत का भला न बोलना, अत की भली न चूप।
अत का भला न बरसना, अत की भली न धूप।
बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि।
हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि।।
चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोय।
दुइ पाटन के बीच में साबित बचा ना कोय।।
जहाँ दया वहाँ धर्म है, जहाँ लोभ वहाँ पाप।
जहाँ क्रोध वहाँ नाश है, जहाँ क्षमा वहाँ आप।।
काम, क्रोधी, लालची, इनसे भक्ति न होय।
भक्ति करे कोई सूरमा, जाति वरन कुल खोय।।
सब काहू का लीजिये, साचा असद निहार।
पछपात ना कीजिये कहै कबीर विचार।।
पाथर पूजे हरि मिले, तो मैं पूजू पहाड़।
घर की चाकी कोई ना पूजे, जाको पीस खाए संसार।।
कुमति कीच चेला भरा, गुरू ज्ञान जल होय।
जनम जनम का मोर्चा, पल में दारे धोय।।
कबीरा घोड़ा प्रेम का, चेतनी चढ़ी अवसार।
ज्ञान खड़ग गहि काल सीरी, भली मचाई मार।
हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना।
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मरे, मरम न जाना कोई।।
कबीर हरी सब को भजे, हरी को भजै न कोई।
जब लग आस सरीरे की, तब लग दास न होई।।
प्रेम प्याला जो पिए, शीश दक्षिणा दे।
लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का ले।।
क्या मुख ली बिनती करो, लाज आवत है मोहि।
तुम देखत ओगुन करो, कैसे भावो तोही।।
जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान।
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।।
दया भाव ह्रदय नहीं, ज्ञान थके बेहद।
ते नर नरक ही जायेंगे, सुनी सुनी साखी शब्द।।
कहे कबीर कैसे निबाहे, केर बेर के संग।
वह झूमत रस आपनी, उसके फाटत अंग।।
ऊँचे पानी ना टिके, नीचे ही ठहराय।
नीचा हो सो भारी पी, ऊँचा प्यासा जाय।
दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त।
अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत।।
जब ही नाम हिरदय धर्यो, भयो पाप का नाश।
मानो चिनगी अग्रि की, परी पुरानी घास।।
धर्म किये धन ना घटे, नदी न घट्ट नीर।
अपनी आँखों देखिले, यों कथि कहहिं कबीर।।
सुख सागर का शील है, कोई न पावे थाह।
शब्द बिना साधू नहीं, द्रव्य बिना नहीं शाह।।
कहत सुनत सब दिन गए, उरझि न सुरझ्या मन।
कही कबीर चेत्या नहीं, अजहूँ सो पहला दिन।।
बाहर क्या दिखलाये, अंतर जपिए राम।
कहा काज संसार से, तुझे धानी से काम।।
फल कारन सेवा करे, करे ना मन से काम।
कहे कबीर सेवक नहीं, चाहे चौगुना दाम।।
कबीर लहरि समंद की मोती, बिखरे आई।
बगुला भेद न जानई, हंसा, चुनी-चुनी खाई।
सोना सज्जन साधू जन, टूट जुड़े सो बार।
दुर्जन कुम्भ कुम्हार के, एइके ढाका दरार।।
चिंता ऐसी डाकिनी, काटि करेजा खाए।
वैद्य बिचारा क्या करे, कहां तक दवा खवाय।।
जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय।
यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोए।।
कहैं कबीर देय तू, जब लग तेरी देह।
देह खेह होय जायगी, कौन कहेगा देह।।
प्रेमभाव एक चाहिए, भेष अनेक बनाय।
चाहे घर में वास कर, चाहे बन को जाए।।
जब गुण को गाहक मिले, तब गुण लाख बिकाई।
जब गुण को गाहक नहीं, तब बदले जाई।
साधू सती और सुरमा, इनकी बात अगाढ़।
आशा छोड़े दूह की, तन की अनथक साथ।।
दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार।
तरूवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार।।
हरी सांगत शीतल भय, मिति मोह की ताप।
निशिवासर सुख निधि, लाहा अन्न प्रगत आप्प।।
चाह मिटी, चिंता मिटी मनवा बेपरवाह।
जिसको कुछ नहीं चाहिए वह शहनशाह।।
आवत गारी एक है, उलटन होए अनेक।
कह कबीर नहीं उलटिए, वही एक की एक।।
जहाँ काम तहाँ नाम नहीं, जहाँ नाम नहीं वहाँ काम।
दोनों कबहूँ नहीं मिले, रवि रजनी इक धाम।।
उज्जवल पहरे कापड़ा, पान सुपारी खाय।
एक हरी के नाम बिन, बंधा यमपुर जाय।।
कबीर कहा गरबियो, काल गहे कर केस।
ना जाने कहाँ मारिसी, कै घर कै परदेस।।
अवगुण कहू शराब का, आपा अहमक होय।
मानुष से पशुआ भय, दाम गाँठ से खोये।।
निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय।
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।।
जा पल दरसन साधू का, ता पल की बलिहारी।
राम नाम रसना बसे, लीजै जनम सुधारी।।
देह खेह होय जायगी, कौन कहेगा देह।
निश्चय कर उपकार ही, जीवन का फन येह।।
गारी ही से उपने, कलह कष्ट और भीच।
हारी चले सो साधू है, लागी चले तो नीच।।
पानी केरा बुदबुदा, अस मानुस की जात।
एक दिना छिप जाएगा, ज्यों तारा परभात।
कबीरा आप ठागइए, और न ठगिये कोय।
आप ठगे सुख होत है, और ठगे दु:ख होय।।
कबीरा सोया क्या करे, उठि न भजे भगवान।
जम जब घर ले जायेंगे, पड़ी रहेगी म्यान।।
कबीरा सोता क्या करे, जागो जपो मुरार।
एक दिन है सोवना, लंबे पाँव पसार।।
पोथी पढि पढि जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।।
कबीरा लोहा एक है, गढ़ने में है फेर।
ताहि का बख्तर बने, ताहि की शमशेर।।
पाँच पहर धन्धे गया, तीन पहर गया सोय।
एक पहर हरि नाम बिन, मुक्ति कैसे होय।।
कुटिल बचन सबसे बुरा, जासे हॉट न हार।
साधू बचन जल रूप है, बरसे अमृत धार।।
हाड़ जलै ज्यूं लाकड़ी, कैसे जलै ज्यूं घास।
सब तन जलता देखि करि, भया कबीर उदास।।
कहते को कही जान दे, गुरू की सीख तू लेय।
साकट जन औश्वान को, फेरि जवाब न देय।।
काह भरोसा देह का, बिनस जात छान मारही।
सांस सांस सुमिरन करो, और यतन कुछ नाही।।
जो उग्या सो अन्तबै, फूल्या सो कुमलाहीं।
जो चिनिया सो ढही पड़े, जो आया सो जाहीं।।
कबीरा कलह अरू कल्पना, सैट संगती से जाय।
दु:ख बासे भगा फिरे, सुख में रही समाय।।
या दुनिया दो रोज की, मत कर यासो हेत।
गुरू चरनन चित लाइये, जो पुराण सुख हेत।।
कबीरा गरब ना कीजिये, कभू ना हासिये कोय।
अजहू नाव समुद्र में, ना जाने का होए।।
झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद।
खलक चबैना काल का, कुछ मुंह में कुछ गोद।।
या दुनिया में आ कर, छड़ी डे तू एट।
लेना हो सो लिले, उठी जात है पैठ।।
कबीर तहाँ न जाइये, जहाँ जो कुल को हेत।
साधुपनो जाने नहीं, नाम बाप को लेत।।
माया छाया एक सी, बिरला जाने कोय।
भागत के पीछे लगे, सन्मुख भागे सोय।।
ऐसा कोई ना मिले, हमको दे उपदेस।
भौ सागर में डूबता, कर गहि काढै केस।।
पत्ता बोला वृक्ष से, सुनो वृक्ष बनराय।
अब के बिछड़े न मिले, दूर पड़ेंगे जाय।।
जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय।
यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोय।।
नहाये धोये क्या हुआ, जो मन मेल न जाय।
मीन सदा जल में रही, धोये बास न जाय।।
संत ना छाडै संतई, जो कोटिक मिले असंत।
चन्दन भुवंगा बैठिया, तऊ सीतलता न तजंत।।
तन को जोगी सब करे, मन को बिरला कोय।
सहजी सब बिधि पिये, जो मन जोगी होय।।
जैसा भोजन खाइये, तैसा ही मन होय।
जैसा पानी पीजिये, तैसी बानी सोय।
तीर तुपक से जो लादे, सो तो शूर न होय।
माया तजि भक्ति करे, सूर कहावै सोय।।
कबीर तन पंछी भया, जहां मन तहां उड़ी जाई।
जो जैसी संगती कर, सो तैसा ही फल पाइ।।
ते दिन गए अकार्थी, सांगत भाई न संत।
प्रेम बिना पशु जीवन, भक्ति बिन भगवंत।।
गाँठी होय सो हाथ कर, हाथ होय सो देह।
आगे हाट न बानिया, लेना होय सो लेह।।
जो तू चाहे मुक्ति को, छोड़ दे सबकी आस।
मुक्त ही जैसा हो रहे, सब कुछ तेरे पास।।
तन को जोगी सब करें, मन को बिरला कोई।
सब सिद्धि सहजे पाइए, जे मन जोगी होई।
राम पियारा छड़ी करी, करे आन का जाप।
बेस्या कर पूत ज्यू, कहै कौन सू बाप।।
इष्ट मिले अरू मन मिले, मिले सकल रस रीति।
कहैं कबीर तहँ जाइये, यह सन्तन की प्रीति।।
जो रोऊ तो बल घटी, हंसो तो राम रिसाई।
मनही माहि बिसूरना, ज्यूँ घुन काठी खाई।।
कबीर सो धन संचे, जो आगे को होय।
सीस चढ़ाए पोटली, ले जात न देख्यो कोय।।
सुखिया सब संसार है, खावै और सोवे।
दुखिया दास कबीर है, जो अरू रावे।।
साधू भूखा भाव का, धन का भूखा नाहीं।
धन का भूखा जी फिरै, सो तो साधू नाहिं।।
परबत परबत मै फिरया, नैन गवाए रोई।
सो बूटी पौ नहीं, जताई जीवनी होई।।
मन हीं मनोरथ छांडी दे, तेरा किया न होई।
पानी में घिव निकसे, तो रूखा खाए न कोई।।
कबीर एक न जन्या, तो बहु जनया क्या होई।
एक तै सब होत है, सब तै एक न होई।।
कबीर संगी साधु का, दल आया भरपूर।
इन्द्रिन को तब बाँधीया, या तन किया धर।।
पतिबरता मैली भली, गले कांच को पोत।
सब सखियाँ में यो दिपै, ज्यो रवि ससी को ज्योत।।
परनारी रता फिरे, चोरी बिधिता खाही।
दिवस चारी सरसा रही, अति समूला जाहि।।
माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूगी तोय।।
भगती बिगाड़ी कामिया, इन्द्री करे सवादी।
हीरा खोया हाथ थाई, जनम गवाया बाड़ी।।
कबीर सुता क्या करे, जागी न जपे मुरारी।
एक दिन तू भी सोवेगा, लम्बे पाँव पसारी।।
कबीर कलि खोटी भाई, मुनियर मिली न कोय।
लालच लोभी मस्कारा, टिंकू आदर होई।।
गारी मोटा ज्ञान, जो रंचक उर में जरै
कोटी सँवारे काम, बैरि उलटि पायन परे।
कोटि सँवारे काम, बैरि उलटी पायन परै
गारी सो क्या हान, हिरदै जो यह ज्ञान धरै।।
कबीर माया मोहिनी, जैसी मीठी खांड।
सतगुरू की कृपा भई, नहीं तोउ करती भांड।।
मेरे संगी दोई जरग, एक वैष्णो एक राम।
वो है दाता मुक्ति का, वो सुमिरावै नाम।।
रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय।
हीरा जन्म अमोल सा, कोड़ी बदले जाय।।
संत न बंधे गाठ्दी, पेट समाता तेई।
साईं सू सन्मुख रही, जहा मांगे तह देई।।
कुटिल वचन सबतें बुरा, जारि करै सब छार।
साधु वचन जल रूप है, बरसै अमृत धार।।
जिस मरने यह जग डरे, सो मेरे आनंद।
कब महिहॅ कब देखिहू, पूरण परमानन्द।।
गारी ही से उपजै, कलह कष्ट औ मीच।
हारि चले सो सन्त है, लागि मरै सो नीच।।
जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ।
मैं बपुरा बूड़न डरा, रहा किनारे बैठ।।
माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर।
कर का मन का डार दे, मन का मनका फेर।।
गुरू सामान दाता नहीं, याचक सीश सामान।
तीन लोक की सम्पदा, सो गुरू दीन्ही दान।।
दु:ख में सुमिरन सब करे सुख में करै न कोय।
जो सुख में सुमिरन करे दु:ख काहे को होय।।
कुमति कीच चेला भरा, गुरू ज्ञान जल होय।
जनम जनम का मोर्चा, पल में दारे धोय।।
बहते को मत बहने दो, कर गहि एचहु ठौर।
कह्यो सुन्यो मानै नहीं, शब्द कहो दुइ और।।
तिनका कबहुँ ना निंदये, जो पाँव तले होय।
कबहुँ उड़ आँखो पड़े, पीर घानेरी होय।।
साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय।।
बन्दे तू कर बन्दगी, तो पावै दीदार।
औसर मानुष जन्म का, बहुरि न बारम्बार।।
गुरू गोविंद दोनों खड़े, काके लांगू पाँय।
बलिहारी गुरू आपनो, गोविंद दियो मिलाय।।
बार-बार तोसों कहा, सुन रे मनुवा नीच।
बनजारे का बैल ज्यों, पैड़ा माही मीच।।
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब।
पल में प्रलय होएगी, बहुरि करेगा कब।।
मन राजा नायक भया, टाँडा लादा जाय।
है है है है है रही, पूँजी गयी बिलाय।।
सुख में सुमिरन ना किया, दु:ख में करते याद।
कह कबीर ता दास की, कौन सुने फरियाद।।
बनियारे के बैल ज्यों, भरमि फिर्यो पहुँदेश।
खाँड़ लादी भुस खात है, बिन सतगुरू उपदेश।।
लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट।
पाछे फिर पछताओगे, प्राण जाहि जब छुट।।
जीवत कोय समुझै नहीं, मुवा न कह संदेश।
तन-मन से परिचय नहीं, ताको क्या उपदेश।
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।
माली सीचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय।।
जिही जिवरी से जाग बॅंधा, तु जनी बँधी कबीर।
जासी आटा लौन ज्यों, सों समान शरीर।।
माँगन मरण समान है, मति माँगो कोई भीख।
माँगन ते मारना भला, यह सतगुरू की सीख।।
कबीरा ते नर अँध है, गुरू को कहते और।
हरी रूठे गुरू ठौर है, गुरू रूठे नहीं ठौर।।
रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय।
हीरा जन्म अमोल सा, कोड़ी बदले जाय।।
माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर।
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर।।
आछे/पाछे दिन पाछे गए हरी से किया न हेत।
अब पछताए होत क्या, चिडिया चुग गई खेत।।
कबीर सुता क्या करे, जागी न जपे मुरारी।
एक दिन तू भी सोवेगा, लम्बे पाँव पसारी।।
साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय।
सार-सार को गहि रहै थोथा देई उड़ाय।।
जब मैं था तब हरी नहीं, अब हरी मैँ नाही।
सब अँधियारा मिट गया, दीपक देखा माही।।
बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर।।
जो तोको काँटा बुवै ताहि बोव तू फूल।
तोहि फूल को फूल है वाको है तिरसुल।।
उठा बगुला प्रेम का तिनका चढ़ा अकास।
तिनका तिनके से मिला तिन का तिन के पास।।
सात समन्दर की मसि करौं लेखनि सब बनराइ।
धरती सब कागद करौं हरि गुण लिखा न जाई।।
साधू गाँठ न बाँधई उदर समाता लेय।
आगे पाछे हरी खड़े जब माँगे तब देय।।
आया था किस काम को तू सोया चादर तान।
सुरत संभाल ए गाफिला अपना आप पहचान।।
चींटी से हस्ती तलक जितने लगू गुरू देह।
सब को सुख देवो सदा परम भक्ति है ये।।
जात जुलाहा माटी को धीर।
हरसि-हरसि गुन रमै कबीर।।
जाति हमारी आत्मा, प्राण हमारा नाम।
अलख हमारा इष्ट, गगन हमारा ग्राम।।
कबीर वा दिन याद कर, पग ऊपर तल सीस।
मृत मंडल में आयके, बिसरि गया जगदीश।।
कबीर सोई पीर है, जो जाने पर पीर।
जो पर पीर न जाने, सो काफिर बेपीर।।
कबीर क्षुधा कूकरी, करत भजन में भंग।
वाकूं टुकड़ा ड़ारि के, सुमिरन करूं सुरंग।।
जहाँ न जाको गुन लहै, तहां न ताको ठांव।
धोबी बसके क्या करे, दीगम्बर के गाँव।
राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय।
जो सुख साधू संग में, सो बैकुंठ न होय।।
संगती सो सुख उपजे, कुसंगति सो दु:ख।
कह कबीर तह जाइए, साधू संग जहा होय।।
साहेब तेरी साहिबी, सब घट रही समाय।
ज्यो मेहंदी के पात में, लाली राखी न जाय।।
लकड़ी कहे लुहार की, तू मति जारे मोहि।
एक दिन ऐसा होयगा, मई जरौंगी तोही।।
ज्ञान रतन का जतानकर, माटि का संसार।
आय कबीर फिर गया, फीका है संसार।।
रिद्धि मांगू नहीं, माँगू तुम पी यह।
निशिदिन दर्शन साधू को, प्रभु कबीर कहू देह।।
न गुरू मिल्या ना सिष भय, लालच खेल्या डाव।
दुनयू बड़े धार में, छधी पाथर की नाव।।
कबीर सतगुरू ना मिल्या, रही अधुरी सीश।
स्वांग जाति का पहरी कर, घरी घरी मांगे भीष।।
यह तन विष की बेलरी, गुरू अमृत की खान।
सीस दिए जो गुरू मिले, तो भी सस्ता जान।।
बैइ मुआ रोगी मुआ, मुआ सकल संसार।
एक कबीरा ना मुआ, जेहि के राम आधार।।
कबीरा यह तन जात है, सके तो ठौर लगा।
कई सेवा कर साधू की, कई गोविन्द गुण गा।।
प्रेमभाव चाहिए, भेष अनेक बनाय।
चाहे घर में वास कर, चाहे बन को जाए।।
प्रेम न बड़ी उपजी, प्रेम न हात बिकाय।
राजा प्रजा जोही रूचे, शीश दी ले जाय।।
सुख सागर का शील है, कोईन पावे थाह।
शब्द बिना साधू नहीं, द्रव्य बिना नहीं शाह।।
जब ही नाम हिरदय धर्यो, भयो पाप का नाश।
मानो चिनगी अग्नि की, परी पुरानी घास।।
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आपने अपनी नानी-दादी को बात-बात पर कबीर दास के दोहे कहते सुना होगा । पर Kabir ke Dohe अगर आप नानी-दादी की पीढ़ी की चीज़ें मानते हैं, तो विश्वास मानिए आप भारी भूल कर रहे हैं । हमारी पीढ़ी को पंद्रहवीं सदी में पैदा हुए Kabir Das की आज कहीं ज़्यादा ज़रूरत है.
Excellent compilation
राम
के.के.
आहा! जी बहुत-बहुत बहुत ही बढ़िया।
जै जै सियाराम
जय जय हनुमान
Jal mile so har mile antar rahe na koye…..Pura doha kaha milega
Bina pair ke pahad chade bina choch ke khaye pahad sita puche ram se ye kon sa janwar kahay
Iska meaning bataye
Very nice dohe
राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय।
जो सुख साधू संग में, सो बैकुंठ न होय।।
सात समन्दर की मसि करौं लेखनि सब बनराइ।
धरती सब कागद करौं हरि गुण लिखा न जाई।
इसका क्या अर्थ है?
जैसे सौ सुनारकी से एक लुहारकी बढकर ही प्रखर होती है; वैसे ही एक कबीर की भी मानव को झकझोरकर जगा देने में सफल होती है।
आपने, गागर में सागर सुना होगा, पर कबीर सीपियों में ही ज्ञान-सागर भर भर के लाते हैं।परा ज्ञान सागर में, साक्षात्कार का जाल बिछाकर कबीर सारा ज्ञान समेट लाये है।
छप्पर फाडकर ज्ञान वर्षा करनेवाले कबीर परा-ज्ञानी थे। जब ज्ञान आप के सामने खुलता है; तो, बिना संकोच सब कुछ बता देता है। पर वह भी चंद शब्दों में।
भारत के आध्यात्मिक आकाश का यह देदिप्यमान तारा है; जिसने ब्रह्मज्ञान को समेटकर दोहों की जडी-बुटि में ठूँस ठूँस कर भरा था।
जालस्थल ने संकलन का,अतीव आवश्यक और उचित काम किया है।
उन्हें धन्यवाद। डॉ. मधुसूदन
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