नवरात्रि के नौं दिनों में मां दुर्गा के नौ रूपों की पूजा-अर्चना, आराधना व उपासना की जाती है और प्रत्येक दिन मां दुर्गा के एक अलग रूप की उपासना का प्रावधान है।
नवरात्रि के पहले तीन तीन मां पार्वती, अगले तीन दिन माता लक्ष्मी व नवरात्रि के अन्तिम तीन दिन माता सरस्वती के लिए समर्पित हैं, जबकि प्रत्येक दिन माता दुर्गा के किसी एक अलग रूप की उपासना होती है, जिनका वर्णन निम्नानुसार है-
शैलपुत्री
नवरात्र के पहले दिन मां के जिस रूप की उपासना की जाती है, उसे शैलपुत्री के नाम से जाना जाता है। पर्वतराज हिमालय के घर पुत्री के रूप में जन्म लेने के कारण मां दुर्गा के इस रूप का नाम ‘शैलपुत्री’ पड़ा था।
शास्त्रों के अनुसार माता शैलपुत्री का स्वरुप अति दिव्य है। मां के दाहिने हाथ में भगवान शिव द्वारा दिया गया त्रिशूल है जबकि मां के बाएं हाथ में भगवान विष्णु द्वारा प्रदत्त कमल का फूल सुशोभित है। मां शैलपुत्री बैल पर सवारी करती हैं और इन्हें समस्त वन्य जीव-जंतुओं का रक्षक माना जाता है।
नवरात्रि के दौरान मां दुर्गा के शैलपुत्री वाले रूप की आराधना करने से आकस्मिक आपदाओं से मुक्ति मिलती है। इसीलिए दुर्गम स्थानों पर बस्तियां बनाने से पहले मां शैलपुत्री की स्थापना की जाती है माना जाता है कि इनकी स्थापना से वह स्थान सुरक्षित हो जाता है और मां की प्रतिमा स्थापित होने के बाद उस स्थान पर आपदा, रोग, व्याधि, संक्रमण का खतरा नहीं होता तथा जीव निश्चिंत होकर उस स्थान पर अपना जीवन व्यतीत कर सकते हैं।
पौराणिक कथाओं के अनुसार मां शैलपुत्री अपने पूर्वजन्म में दक्ष-प्रजापति की पुत्री सती थीं, जिनका विवाह भगवान शिव से हुआ था।
धार्मिक मान्यतानुसार मां दुर्गा के इस शैलपुत्री के रूप की उपासना करते समय निम्न मंत्र का उच्चारण करने से मां जल्दी प्रसन्न होती हैं, तथा वांछित फल प्रदान करने में सहायता करती हैं-
वन्देवांछितलाभायचंद्राद्र्धकृतशेखराम। वृषारूढ़ा शूलधरां शैलपुत्रीं यशस्विनीम।।
ब्रह्मचारिणी
भारतीय संस्कृति की हिन्दु मान्यता के अनुसार मां दुर्गा का ब्रह्मचारिणी रूप, हिमालय और मैना की पुत्री हैं, जिन्होंने भगवान नारद के कहने पर भगवान शंकर की ऐसी कठिन तपस्या की, जिससे खुश होकर ब्रम्हाजी ने इन्हे मनोवांछित वरदान दिया जिसके प्रभाव से ये भगवान शिव की पत्नी बनीं।
संस्कृत भाषा में ब्रह्म का अर्थ होता है तपस्या, यानी तप का आचरण करने वाली माता भगवती के रूप को ही माता ब्रह्मचारिणी के नाम से जाना जाता है और नवरात्रि के दूसरे दिन मां दुर्गा के इस रूप की उपासना की जाती है।
ब्रह्मचारिणी देवी का स्वरूप पूर्ण ज्योतिर्मय एवं अत्यन्त भव्य है। मां के दाहिने हाथ में जप की माला है और बायें हाथ में कमण्डल है तथा मान्यता ये है कि माता ब्रह्मचारिणी की पूजा और साधना करने से कुंडलिनी शक्ति जागृत होती है।
कुण्डलिनी शक्ति एक ऐसी शक्ति होती है, जिसके जाग्रत होने पर व्यक्ति का जीवन सफल हो जाता है। वह जो चाहता है, वैसा ही होता है। सम्पूर्ण प्रकृति उसके कहे अनुसार काम करने लगती है। इसलिए कुण्डलिनी जागरण को भारतीय संस्कृति में सबसे कठिन साधना भी माना जाता है। मां ब्रह्मचारिणी की उपासना करने के लिए जिस मंत्र की साधना की जाती है, वो निम्नानुसार है:
यादेवीसर्वभूतेषुमाँब्रह्मचारिणीरूपेणसंस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
चंद्रघंटा
जब महिषासुर के साथ माता दुर्गा का युद्ध हो रहा था, तब माता ने घंटे की टंकार से असुरों का नाश कर दिया था। इसलिए नवरात्रि के तृतीय दिन माता के इस चंद्रघण्टा रूप का पूजन किया जाता है। भारतीय धार्मिक मान्यतानुसार इनके पूजन से साधक के मणिपुर चक्र के जाग्रत होने वाली सिद्धियां स्वत: प्राप्त होती हैं तथा सांसारिक कष्टों से मुक्ति मिलतीहै।
नवरात्र के तीसरे दिन मां दुर्गा की जिस तीसरी शक्ति पूजा-अर्चना की जाती है, उन दिव्य रुपधारी माता चंद्रघंटा की दस भुजाएं हैं। मां के इन दस हाथों में ढाल, तलवार, खड्ग, त्रिशूल, धनुष, चक्र, पाश, गदा और बाणों से भरा तरकश है। मां चन्द्रघण्टा का मुखमण्डल शांत, सात्विक, सौम्य किंतु सूर्य के समान तेज वाला है। इनके मस्तक पर घण्टे के आकार का आधा चन्द्रमा भी सुशोभित है।
मां चंद्रघंटा नाद की देवी हैं, इसलिए इनकी कृपा से साधक स्वर विज्ञान यानी गायन में प्रवीण होता है तथा मां चंद्रघंटा की जिस पर कृपा होती है, उसका स्वर इतना मधुर होता है कि उसकी आवाज सुनकर हर कोई उसकी तरफ आकर्षित हो जाता है। मान्यता ये भी है कि प्रेत बाधा जैसी समस्याओं से भी मां चंद्रघण्टा साधक की रक्षा करती हैं। योग साधना की सफलता के लिए भी माता चन्द्रघंटा की उपासना बहुत ही असरदार होती है, इसलिए तंत्र-मंत्र व योग साधना के लिए नवरात्रि के तीसरे दिन का विशेष महत्व होता है। मां चंद्रघंटा की उपासना करने के लिए जिस मंत्र की साधना की जाती है, वो निम्नानुसार है:
पिण्डज प्रवरारूढ़ा चण्डकोपास्त्रकैर्युता। प्रसादं तनुते महयं चन्दघण्टेति विश्रुता।।
कुष्मांडा
नवरात्र के चौथे दिन मां पारांबरा भगवती दुर्गा के कुष्मांडा स्वरुप की पूजा की जाती है। मान्यता ये है कि जब सृष्टि का अस्तित्व नहीं था, तब कुष्माण्डा देवी ने ब्रह्मांड की रचना की थी। अपनी मंद-मंद मुस्कान भर से ब्रम्हांड की उत्पत्ति करने के कारण ही इन्हें कुष्माण्डा के नाम से जाना जाता है इसलिए ये सृष्टि की आदि-स्वरूपा, आदिशक्ति हैं।
देवी कुष्मांडा का निवास सूर्यमंडल के भीतर के लोक में है जहां निवास कर सकने की क्षमता और शक्ति केवल इन्हीं में है। इनके शरीर की कांति और प्रभा सूर्य के समान ही अलौकिक हैं। माता के तेज और प्रकाश से दसों दिशाएं प्रकाशित होती हैं ब्रह्मांड की सभी वस्तुओं और प्राणियों में मौजूद तेज मां कुष्मांडा की छाया है।
मां कुष्माण्डा की आठ भुजाएं हैं। इसलिए मां कुष्मांडा को अष्टभुजा देवी के नाम से भी जाना जाता हैं। इनके सात हाथों में क्रमशः कमंडल, धनुष, बाण, कमल-पुष्प, अमृतपूर्ण कलश, चक्र तथा गदा है। आठवें हाथ में सभी सिद्धियों और निधियों को देने वाली जपमाला है। मां सिंह के वाहन पर सवार रहती हैं।
मां कुष्माण्डा की उपासना से भक्तों के समस्त रोग-शोक मिट जाते हैं। इनकी भक्ति से आयु, यश, बल और आरोग्य की वृद्धि होती है। आज के दिन साधक का मन ‘अनाहत’ चक्र में अवस्थित होता है।
इस दिन साधक को बहुत ही पवित्र और अचंचल मन से कुष्माण्डा देवी के स्वरूप को ध्यान में रखकर पूजा-उपासना के कार्य में लगना चाहिए। इनकी उपासना से सभी प्रकार के रोग-दोष दूर होते हैं। धन यश और सम्मान की वृद्धि होती है। मां कूष्माण्डा थोड़ी सी पूजा और भक्ति से भी प्रसन्न हो जाती हैं। इसलिए मां कुष्माण्डा की उपासना करने के लिए निम्न मंत्र की साधना करना चाहिए:
या देवी सर्वभूतेषु माँ कूष्माण्डा रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
स्कंदमाता
हिन्दु धर्म की मान्यतानुसार जब अत्याचारी दानवों का अत्याचार बढ़ता है, तब स्कंदमाता, संत जनों की रक्षा के लिए सिंह पर सवार होकर दुष्टों का अंत करती हैं।
देवी स्कन्दमाता की चार भुजाएं हैं जहां माता अपने दो हाथों में कमल का फूल धारण करती हैं और एक भुजा में भगवान स्कन्द या कुमार कार्तिकेय को सहारा देकर अपनी गोद में लिये बैठी हैं जबकि मां का चौथा हाथ भक्तो को आशीर्वाद देने की मुद्रा मे होता है।
देवी स्कन्द माता ही हिमालय की पुत्री पार्वती हैं, जिन्हें माहेश्वरी और गौरी के नाम से भी जाना जाता है। ये पर्वत राज की पुत्री होने की वजह से पार्वती कहलाती हैं, महादेव की वामिनी यानी पत्नी होने से माहेश्वरी कहलाती हैं और अपने गौर वर्ण के कारण देवी गौरी के नाम से पूजी जाती हैं।
स्कंदमाता को अपने पुत्र से अत्यधिक प्रेम है, अत: मां को अपने पुत्र के नाम के साथ संबोधित किया जाना अच्छा लगता है। इसलिए मान्यता ये भी है कि जो भक्त माता के इस स्वरूप की पूजा करते है, मां उस पर अपने पुत्र के समान स्नेह लुटाती हैं।
नवरात्र के पांचवें दिन मां स्कंदमाता की उपासना की जाती है और मां आदिशक्ति का ये ममतामयी रूप है। गोद में स्कन्द यानी कार्तिकेय स्वामी को लेकर विराजित माता का यह स्वरुप जीवन में प्रेम, स्नेह, संवेदना को बनाए रखने की प्रेरणा देता है। भगवान स्कंद ‘कुमार कार्तिकेय’ नाम से भी जाने जाते हैं। ये प्रसिद्ध देवासुर संग्राम में देवताओं के सेनापति बने थे। पुराणों में स्कंद को कुमार और शक्ति कहकर इनकी महिमा का वर्णन किया गया है। इन्हीं भगवान स्कंद की माता होने के कारण मां दुर्गा के इस स्वरूप को स्कंदमाता के नाम से जाना जाता है।
मान्यता है कि स्कंदमाता की पूजा से सभी मनोरथ पूरे होते हैं। इस दिन साधक का मन ‘विशुद्ध‘ चक्र में अवस्थित होता है। मां स्कंदमाता की उपासना से भक्त की सभी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं तथा साधक को शांति और सुख का अनुभव होने लगता है। स्कंदमाता की उपासना से बालरूप स्कंद भगवान की उपासना अपने आप हो जाती है। सूर्यमंडल की अधिष्ठात्री देवी होने के कारण स्कंदमाता की पूजा करने वाला व्यक्ति अलौकिक तेज एवं कांति से संपन्न हो जाता है। मां स्कंदमाता की उपासना करने के लिए निम्न मंत्र की साधना करना चाहिए:
या देवी सर्वभूतेषु माँ स्कंदमाता रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
कात्यायनी
नवरात्र के छठवें दिन मां कात्यायनी की पूजा-अर्चना की जाती है जहां कात्यायन ऋषि के यहां जन्म लेने के कारण माता के इस स्वरुप का नाम कात्यायनी पड़ा। अगर मां कात्यायनी की पूजा सच्चे मन से की जाए तो भक्त के सभी रोग दोष दूर होते हैं।
इस दिन साधक का मन ‘आज्ञा’ चक्र में स्थित होता है। योगसाधना में आज्ञा चक्र का विशेष महत्व है क्योंकि जिस किसी भी साधक का आज्ञा चक्र सक्रिय हो जाता है, उसकी आज्ञा को कोई भी जीव नकार नहीं सकता।
मां कात्यायनी शत्रुहंता है इसलिए इनकी पूजा करने से शत्रु पराजित होते हैं और जीवन सुखमय बनता है। जबकि मां कात्यायनी की पूजा करने से कुंवारी कन्याओं का विवाह होता है।
भगवान कृष्ण को पति के रूप में पाने के लिए ब्रज की गोपियों ने कालिन्दी यानि यमुना के तट पर मां कात्यायनी की ही आराधना की थी। इसलिए मां कात्यायनी ब्रजमंडल की अधिष्ठात्री देवी के रूप में भी जानी जाती है।
मां कात्यायनी का स्वरूप अत्यंत चमकीला और भव्य है। इनकी चार भुजाएँ हैं। मां कात्यायनी का दाहिनी तरफ का ऊपरवाला हाथ अभयमुद्रा में तथा नीचे वाला वरमुद्रा में है। बाईं तरफ के ऊपरवाले हाथ में तलवार और नीचे वाले हाथ में कमल-पुष्प सुशोभित है। इनका वाहन सिंह है।
मां कात्यायनी की भक्ति और उपासना से मनुष्य को बड़ी सरलता से अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष चारों फलों की प्राप्ति हो जाती है। वह इस लोक में स्थित रहकर भी अलौकिक तेज और प्रभाव से युक्त हो जाता है। मां कात्यायनी का जन्म आसुरी शक्तियों का नाश करने के लिए हुआ था और मां के इसी रूप ने शुंभ और निशुंभ नाम के राक्षसों का संहार कर देवताओं को फिर से स्वर्ग पर अधिकार दिलवाया था। मां दुर्गा के कात्यायनी रूप की उपासना करने के लिए निम्न मंत्र की साधना करना चाहिए:
या देवी सर्वभूतेषु माँ कात्यायनी रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
कालरात्रि
माँ दुर्गाजी की सातवीं शक्ति कालरात्रि के नाम से जानी जाती हैं। दुर्गापूजा के सातवें दिन माँ कालरात्रि की उपासना का विधान है। इस दिन साधक का मन ‘सहस्रार’ चक्र में स्थित रहता है। इसके लिए ब्रह्मांड की समस्त सिद्धियों का द्वार खुलने लगता है।
सहस्रार चक्र में स्थित साधक का मन पूर्णतः माँ कालरात्रि के स्वरूप में अवस्थित रहता है। उनके साक्षात्कार से मिलने वाले पुण्य का वह भागी हो जाता है। उसके समस्त पापों-विघ्नों का नाश हो जाता है। उसे अक्षय पुण्य-लोकों की प्राप्ति होती है।
इनके शरीर का रंग घने अंधकार की तरह एकदम काला है। सिर के बाल बिखरे हुए हैं। गले में विद्युत की तरह चमकने वाली माला है। इनके तीन नेत्र हैं। ये तीनों नेत्र ब्रह्मांड के सदृश गोल हैं। इनसे विद्युत के समान चमकीली किरणें निःसृत होती रहती हैं।
माँ की नासिका के श्वास-प्रश्वास से अग्नि की भयंकर ज्वालाएँ निकलती रहती हैं। इनका वाहन गर्दभ (गदहा) है। ये ऊपर उठे हुए दाहिने हाथ की वरमुद्रा से सभी को वर प्रदान करती हैं। दाहिनी तरफ का नीचे वाला हाथ अभयमुद्रा में है। बाईं तरफ के ऊपर वाले हाथ में लोहे का काँटा तथा नीचे वाले हाथ में खड्ग (कटार) है।
माँ कालरात्रि का स्वरूप देखने में अत्यंत भयानक है, लेकिन ये सदैव शुभ फल ही देने वाली हैं। इसी कारण इनका एक नाम ‘शुभंकारी’ भी है। अतः इनसे भक्तों को किसी प्रकार भी भयभीत अथवा आतंकित होने की आवश्यकता नहीं है।
माँ कालरात्रि दुष्टों का विनाश करने वाली हैं। दानव, दैत्य, राक्षस, भूत, प्रेत आदि इनके स्मरण मात्र से ही भयभीत होकर भाग जाते हैं। ये ग्रह-बाधाओं को भी दूर करने वाली हैं। इनके उपासकों को अग्नि-भय, जल-भय, जंतु-भय, शत्रु-भय, रात्रि-भय आदि कभी नहीं होते। इनकी कृपा से वह सर्वथा भय-मुक्त हो जाता है।
माँ कालरात्रि के स्वरूप-विग्रह को अपने हृदय में अवस्थित करके मनुष्य को एकनिष्ठ भाव से उपासना करनी चाहिए। यम, नियम, संयम का उसे पूर्ण पालन करना चाहिए। मन, वचन, काया की पवित्रता रखनी चाहिए। वे शुभंकारी देवी हैं। उनकी उपासना से होने वाले शुभों की गणना नहीं की जा सकती। हमें निरंतर उनका स्मरण, ध्यान और पूजा करना चाहिए। मां दुर्गा के कालरात्रि रूप की उपासना करने के लिए निम्न मंत्र की साधना करना चाहिए:
या देवी सर्वभूतेषु माँ कालरात्रि रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
महागौरी
माँ दुर्गाजी की आठवीं शक्ति का नाम महागौरी है। दुर्गापूजा के आठवें दिन महागौरी की उपासना का विधान है। इनकी शक्ति अमोघ और सद्यः फलदायिनी है। इनकी उपासना से भक्तों को सभी कल्मष धुल जाते हैं, पूर्वसंचित पाप भी विनष्ट हो जाते हैं। भविष्य में पाप-संताप, दैन्य-दुःख उसके पास कभी नहीं जाते। वह सभी प्रकार से पवित्र और अक्षय पुण्यों का अधिकारी हो जाता है।
एक कथा अनुसार भगवान शिव को पति रूप में पाने के लिए देवी ने कठोर तपस्या की थी जिससे इनका शरीर काला पड़ जाता है। देवी की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान इन्हें स्वीकार करते हैं और शिव जी इनके शरीर को गंगा-जल से धोते हैं जिससे देवी विद्युत के समान अत्यंत कांतिमान गौर वर्ण की हो जाती हैं जिसकी वजह से इनका नाम गौरी पड़ा।
मां महागौरी की उत्पत्ति के संदर्भ में एक और कथा है जिसके अनुसार एक सिंह काफी भूखा था, वह भोजन की तलाश में वहां पहुंचा जहां देवी उमा तपस्या कर रही होती हैं। देवी को देखकर सिंह की भूख बढ़ जाती है परंतु वह देवी के तपस्या से उठने का इंतजार करते हुए वहीं बैठ जाता है। इस इंतजार में वह काफी कमज़ोर हो जाता है। देवी जब तप से उठती हैंख् तो सिंह की दशा देखकर उन्हें उस पर बहुत दया आती है और माँ उसे अपनी सवारी बना लेती हैं क्योंकि एक प्रकार से मां के समान ही उसने भी तपस्या की हाेती है। इसीलिए देवी गौरी का वाहन बैल भी है और सिंह भी।
महागौरी का वर्ण पूर्णतः गौर है। इस गौरता की उपमा शंख, चंद्र और कुंद के फूल से दी गई है। इनकी आयु आठ वर्ष की मानी गई है- ‘अष्टवर्षा भवेद् गौरी।’ इनके समस्त वस्त्र एवं आभूषण आदि भी श्वेत हैं।
महागौरी की चार भुजाएँ हैं। इनका वाहन वृषभ है। इनके ऊपर के दाहिने हाथ में अभय मुद्रा और नीचे वाले दाहिने हाथ में त्रिशूल है। ऊपरवाले बाएँ हाथ में डमरू और नीचे के बाएँ हाथ में वर-मुद्रा हैं। इनकी मुद्रा अत्यंत शांत है।
नवरात्रि के दौरान इस अष्ठमी के दिन महिलाएं अपने सुहाग के लिए देवी मां को चुनरी भेंट करती हैं। मां दुर्गा के महागौरी रूप की उपासना करने के लिए शास्त्रों में निम्न मंत्र की साधना का वर्णन है:
सर्वमंगल मंग्ल्ये, शिवे सर्वार्थ साधिके। शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोस्तुते”।।
सिद्धिदात्री
माँ दुर्गाजी की नौवीं शक्ति का नाम सिद्धिदात्री हैं। ये सभी प्रकार की सिद्धियों को देने वाली हैं। नवरात्र-पूजन के नौवें दिन इनकी उपासना की जाती है। इस दिन शास्त्रीय विधि-विधान और पूर्ण निष्ठा के साथ साधना करने वाले साधक को सभी सिद्धियों की प्राप्ति हो जाती है। सृष्टि में कुछ भी उसके लिए अगम्य नहीं रह जाता है। ब्रह्मांड पर पूर्ण विजय प्राप्त करने की सामर्थ्य उसमें आ जाती है।
मां सिद्धिदात्री भक्तों को सभी प्रकार की सिद्धियों को प्रदान करती है। देवी दुर्गा के इस अंतिम स्वरुप को नव दुर्गाओं में सबसे श्रेष्ठ और मोक्ष प्रदान करने वाला माना जाता है। जो श्वेत वस्त्रों में महाज्ञान और मधुर स्वर से भक्तों को सम्मोहित करती है। यह देवी भगवान विष्णु की अर्धांगिनी हैं और नवरात्रों की अधिष्ठात्री हैं। इसलिए मां सिद्धिदात्री को ही जगत को संचालित करने वाली देवी कहा गया है।
मार्कण्डेय पुराण के अनुसार अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व- ये आठ सिद्धियाँ होती हैं और माँ सिद्धिदात्री भक्तों और साधकों को ये सभी सिद्धियाँ प्रदान करने में समर्थ हैं। देवीपुराण के अनुसार भगवान शिव ने इनकी कृपा से ही इन सिद्धियों को प्राप्त किया था और इनकी अनुकम्पा से ही भगवान शिव का आधा शरीर देवी का हुआ था। इसी कारण वे लोक में ‘अर्द्धनारीश्वर’ नाम से प्रसिद्ध हुए।
माँ सिद्धिदात्री चार भुजाओं वाली हैं। इनका वाहन सिंह है। ये कमल पुष्प पर भी आसीन होती हैं। इनकी दाहिनी तरफ के नीचे वाले हाथ में कमलपुष्प है। मां दुर्गा के सिद्धिदात्री रूप की उपासना करने के लिए शास्त्रों में निम्न मंत्र की साधना का वर्णन है:
या देवी सर्व भूतेषु माँ सिद्धिदात्री रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
मां दुर्गा के सिद्धिदात्री रूप की उपासना करने से सभी प्रकार की भौतिक व आध्यात्मि कामनाओं की पूर्ति होती है और मान्यता ये भी है कि यदि नवरात्रि के नौ दिनों में लगातार किसी तंत्र-मंत्र की सिद्धि हेतु प्रयास किया गया होता है, तो नवरात्रि के इस अन्तिम दिन उन सभी साधनाओं की सिद्धि हो जाती है, तथा साधक को उसका मनचाहा परिणाम प्राप्त होता है, क्योंकि माता सिद्धिदात्री सभी प्रकार की सिद्धियां देने में सक्षम हैं।
आपका ब्लॉग पढ़ कर हमे अच्छा लगा।