हनुमान जयंती – वैसे तो हनुमान जयंती का पर्व सभी लोग चैत्र माह की पूर्णिमा को मनाते हैं क्योंकि ऐसा माना जाता है कि इसी दिन हनुमान जी का जन्म हुआ था
परन्तु महर्षि वाल्मिकी रचित वाल्मिकी रामायण में इसके बारे में कुछ अलग ही तथ्य हैं, जिसके अनुसार हनुमान जी का जन्म कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को मंगलवार के दिन, स्वाति नक्षत्र और मेष लग्न में हुआ था जो कि दिपावली से एक दिन पहले मनाई जाने वाली नरक चतुर्दशी या रूप चतुर्दशी के दिन आता है।
इस प्रकार से हनुमान जी के जन्म के संदर्भ में दो अलग दिन होने की वजह से ही हनुमान जयंती भी वर्ष में दो बार मनाई जाती है।
हनुमानजी हिन्दु धर्म के एक ऐसे देवता हैं, जिन्हें भगवान शिव के ग्यारहवें अवतार (रूद्रावतार) के रूप में जानते हैं और ऐसा माना जाता है कि हनुमानजी अमर हैं क्योंकि रामायण के सभी देवी-देवताओं की मृत्यु के संदर्भ में कोई न कोई जानकारी जरूर उपलब्ध है लेकिन किसी भी हिन्दु धर्म शास्त्र में हनुमानजी की मृत्यु के संदर्भ में कोई उल्लेख नहीं मिलता। जबकि रामायण के हजारों साल बाद महाभारत काल के समय में भी हनुमानजी के होने का संकेत मिलता है, जिसके अन्तर्गत-
एक बार भीम कहीं जा रहे थे और रास्ते में एक वानर अपनी पूंछ फैला कर इस प्रकार से बैठा था कि यदि भीम अपना रथ आगे बढाते, तो उस वानर की पूंछ पर से गुजरना पडता। इसलिए भीम ने उस वानर से अपनी पूंछ हटाने के लिए कहा। लेकिन उस वानर ने जवाब दिया कि यदि तुम्हें परेशानी है तो स्वयं ही उसे रास्ते से हटा दें। भीम ने उस वानक की पूंछ को रास्ते से हटाने की कोशिश की, सफल न हो सका।
माना जाता है कि ये वानर, हनुमानजी ही थे जो अन्त में महाभारत के युद्ध के दौरान अर्जुन के रथ की पताका के रूप में अर्जुन के रथ पर सवार थे और इन्हीं की वजह से अर्जुन का रथ, कौरवों की सेना के भीष्म व कर्ण जैसे महावीरों के अश्त्र-शस्त्रों से भी विचलित नहीं हुआ।
माता अंजना की श्राप मुक्ति
हिन्दु धर्म के शास्त्रों के अनुसार हनुमानजी के जन्म के कई कारण थे, जिनमें से एक कारण माता अंजना को श्राप मुक्त करना भी था। इस संदर्भ में एक पौराणिक कथा है कि-
माता अंजना पूर्व जन्म में भगवान इन्द्र के दरबार की एक अप्सरा थी, जिनका नाम पुंजिकस्थला था। एक बार बालपन में पुंजिकस्थला से एक बहुत बड़ा अपराध हो गया था।
एक तेजस्वी ऋषि एक वानर रूप में घोर तपस्या में लीन थे। पुंजिकस्थला ने उन्हें देखा तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ कि एक वानर इतनी घोर तपस्या कैसे कर रहा है। उसे अपनी आंखों पर विश्वास नही हुआ। उसे लगा कि जरूर कोई वानर तपस्या की मुद्रा में सो रहा है, सो उसने उस वानर रूपी ऋषि पर फल मारने शुरू कर दिए।
लेकिन पुंजिकस्थला के ऐसा करने से उस ऋषि की तपस्या खण्डित हो गई। फलस्वरूप वह ऋषि बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने पुंजिकस्थला को यह श्राप दिया कि – उद्दण्ड बालिका… तू एक वानर की तरह चंचल है। इसलिए जब भी तुझे किसी पुरूष से प्रेम होगा और यदि उसने तुझे देख लिया, तो तू वानरी हो जायेगी।
पुंजिकस्थला ने जब ऋषि को उनके असली रूप में देखा तो उसे अपने द्वारा किये गये अपराध का बोध हुआ और वह दु:खी होकर ऋषि से क्षमा याचना करने लगी, ऋषि के पैरों में गिर कर गिड़गिड़ाने लगी। ऋषि को पुंजिकस्थला पर दया आ गई और उन्होंने कहा कि- अब मैं यह श्राप वापस तो नही ले सकता हूँ, परन्तु वानरी का तुम्हारा वह रूप भी बहुत आकर्षक होगा।
इतना कहकर ऋषि वहां से चले गए। कुछ दिन बाद भगवान इन्द्र, पुंजिकस्थला की सेवा से अति प्रसन्न हुऐ और कहा- मैं तुम्हारी सेवा से अतिप्रसन्न हूँ। मांगो क्या वर मांगती हो।
पुंजिकस्थला ने अपने बालपन में हुए अपराध और ऋषि द्वारा दिए गए श्राप के बारे में भगवान इंद्र को बताया और कहा- यदि आप मेरी सेवा से प्रसन्न हैं, तो कृपा कर कोई ऐसा उपाय बताऐं, जिससे मुझे इस श्राप से मुक्ति मिल जाए।
भगवान इंद्र ने कहा कि- इस श्राप से मुक्ति पाने के लिए तुमको पृथ्वी पर जन्म लेना होगा और जब तुम्हारे द्वारा भगवान शिव का अंश जन्म लेगा, तुम इस श्राप से मुक्त हो जाओगी।
पुंजिकस्थला ने इंद्र के कहे अनुसार ही किया और माता अंजना के रूप में पृथ्वी पर जन्म लिया।
एक दिन वन में उन्होंने केसरी को देखा तो उन्हें केसरी से प्रेम हो गया लेकिन उसी क्षण केसरी जी ने भी उन्हें देख लिया। जैसे ही केसरी ने माता अंजना को देखा तो ऋषि का श्राप सच हो गया और वह वानरी हो गई। परन्तु उसका रूप इतना आकर्षक था की केसरीजी उन्हें देखते ही मोहित हो गए और माता अंजना के साथ विवाह कर लिया।
केसरी के साथ विवाह रचा कर माता अंजना ने भगवान शिव के अंश हनुमान को जन्म दिया जो कि भगवान शिव के ग्यारहवें रूद्रावतार माने जाते हैं, परिणामस्वरूप हनुमान जी के जन्म के साथ ही माता अंजना उस ऋषि के श्राप से मुक्त हो गईं।
हनुमान जी को पवनपुत्र क्यों कहते हैं?
हनुमानजी का नाम पवनपुत्र, जन्म के बाद रखा गया नाम नहीं था, बल्कि ये नाम तो हनुमानजी के जन्म के पहले से ही तय हो गया था। हनुमानजी को पवनपुत्र कहे जाने के संदर्भ में भी एक पौराणिक कथा है कि-
एक बार जब पुंजिकस्थला नाम की अप्सरा स्वर्ग लोक में भ्रमण कर रही थीं तो उसी समय रावण भी स्वर्ग लोक में पहुँचा। चूंकि पुंजिकस्थला काफी सुंदर थी, इसलिए जैसे ही रावण ने उसे देखा, वह उस पर इतना मोहित हो गया कि उसका हाथ पकड़ लिया। रावण की इस हरकत से पुंजिकस्थला अत्यधिक क्रोधित हुईं और सीधे ब्रह्मा जी के पास गई तथा रावण की इस हरकत के बारे में ब्रह्मा जी को बताया।
ब्रह्मा जी ने रावण को उसकी इस हरकत के लिए काफी फटकारा लेकिन पुंजिकस्थला को इससे संतुष्टी नही थी। इसलिए पुंजिकस्थला ने रावण से स्वयं अपने अपमान का बदला लेने की ठान ली।
पुंजिकस्थला रावण से अपने अपमान का बदला ले सके, इसी करणवश् शिव जी ने माता अंजना, जो कि पुंजिकस्थला ही थी, के गर्भ से हनुमान जी के रूप में जन्म लिया क्योंकि रावण, शिवजी का परम भक्त था और उनके आशीर्वाद से ही रावण को बहुत सी शक्तियां प्राप्त हुई थी इसलिए वे स्वयं रावण की मृत्यु का कारण नहीं बन सकते थे। अत: उन्होंने इस कार्य को सम्पन करने के लिए पवनदेव को बुलाया और उन्हें अपना दिव्य पुंज देकर कहा कि- जाओ और इस दिव्य पुंज को अंजना के गर्भ में स्थापित करो।
एक दिन माता अंजना वन में भ्रमण कर रही थी। उसी समय उस वन में बहुत ही तेज हवा चलने लगी। माता अंजना को लगा कि उन्हें कोई स्पर्श कर रहा है। इतने में एक अाकाशवाणी हुई और पवनदेव बोले- देवी… आप चिंतित न हों। आप के गर्भ में एक ऐसी दिव्य शक्ति का प्रवेश हुआ है, जिसका जन्म आप के गर्भ से होगा। वह बहुत ही शक्तिशाली और विलक्षण बुद्धि वाला होगा जिसकी रक्षा मैं खुद करूगां और वह आने वाले समय में बहुत ही बड़ा रामभक्त बनेगा तथा पृथ्वी से बुराई मिटानें में भगवान राम की मद्द करेगा।
भगवान शिव का यह कार्य पूरा कर पवनदेव जब वापस कैलाश पर्वत लौटे तो भगवान शिव उनके द्वारा दिए गए दायित्व को बड़ी ही सफलता के साथ पूरा करने की खुशी में बोले कि- मैं तुमसे अतिप्रसन्न हूँ। मांगों, क्या वर मांगते हो।
तो पवनदेव ने उनसे केवल यही वर मांगा कि- अंजना के इस पुत्र का पिता कहलाने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हो।
भगवान शिव ने कहा- तथास्तु।
यानी ऐसा ही होगा और तभी से हनुमानजी को मारूतिनन्दन व पवनपुत्र जैसे नामों से अलंकृत किया जाने लगा।
पवनपुत्र का नाम कैसे पड़ा हनुमान?
पवनपुत्र हनुमान को हनुमान नाम मिलने के पीछे भी एक पौराणिक कथा है और हनुमानजी के संदर्भ में कही गई सभी अन्य कहानियों की तरह ही ये भी काफी रोचक है। कथा इस प्रकार है कि-
एक दिन सुबह जब केसरीनन्दन प्रात:काल अपनी निन्द्रा से जागे तो उन्हें बहुत तेज भूख लगी। उन्होंने माता अंजना को आवाज लगाई तो पता चला कि माता भी घर में नही हैं। इसलिए वह स्वयं ही खाने के लिए कुछ तलाश करने लगे परन्तु उन्हें कुछ भी नही मिला।
इतने में उन्होने एक झरोखे से देखा तो सूर्योदय हो रहा था और जब सूर्य उदय होता है तो वह एक दम लाल दिखाई देता है। केसरीनन्दन उस समय बहुत छोटे थे, इसलिए उन्हें लगा कि उदय होता लाल रंग का सूर्य कोई स्वादिष्ट फल है। सो वे उसे ही खाने चल दिए।
केसरी नन्दन की इस बाल लीला को देख सभी देवी देवता हक्के-बक्के हो काफी चिन्तित हो गए क्योंकि सूर्यदेव ही सम्पूर्ण धरती के जीवनदाता है। जबकि पवनदेव ने केसरीनन्दन को सूर्यदेव की तरफ जाते देखा, तो वे भी उनके पीछे भागे जिससे कि वे सूर्यदेव के तेज से केसरीनन्दन को होने वाली किसी भी प्रकार की हानि से बचा सकें।
मान्यता ये है कि ग्रहण के समय राहू नाम का राक्षस सूर्य को ग्रसता है लेकिन जब राहु ने पवनपुत्र को सूर्य की ओर बढते देखा तो वह इन्द्र देव के पास भागा और इन्द्र को कहा कि- आप ने तो ग्रहण के समय सिर्फ मुझे ही सूर्य को ग्रसने का वरदान दिया था। तो फिर आज कोई दूसरा सूर्य को क्यों ग्रसने में लगा हुआ है।
इन्द्र ने यह सुना तो वह सूर्य के पास गये और देखा कि केसरीनन्दन सूर्य को अपने मुख में रखने जा ही रहे है। जब इन्द्र ने उन्हें रोका तो हनुमान जी उन्हें भी खाने चल पडे क्योंकि वे इतने भूखे थे कि उन्हें जो भी सामने दिखाई दे रहा था, वे उसे ही खाने पर उतारू थे। सो जब वे इन्द्र की तरफ बढे, तो इन्द्र देव ने अपने वज्र से केसरीनन्दन पर प्रहार कर दिया, जिससे केसरीनन्दन मुर्छित हो गए।
अपने पुत्र पर इन्द्र के वज्र प्रहार को देख पवनदेव को बड़ा गुस्सा आया। उन्होंने अपने पुत्र को उठाया और एक गुफा में लेकर चले गए तथा क्राेध के कारण उन्होंने पृथ्वी पर वायु प्रवाह को रोक दिया, जिससे पृथ्वी के सभी जीवों को सांस लेने में कठिनाई होने लगी और वे धीरे-धीरे मरने लगे।
यह सब देखकर इन्द्रदेव भगवान ब्रह्मा के पास गए और उन्हें सारी समस्या बताई। ब्रह्मा और सभी देवतागण पवनदेव के पास पहुँचे व ब्रह्मा जी ने केसरीनन्दन की मुर्छा अवस्था को समाप्त किया तथा सभी देवता गणों को केसरीनन्दन के जन्म के उद्देश्य के बारे में बताया व कहा कि- सभी देवतागण अपनी शक्ति का कुछ अंश केसरीनन्दन को दें, जिससे आने वाले समय में वह राक्षसों का वद्ध कर सके।
सभी ने अपनी शक्ति का कुछ अंश केसरीनन्दन को दिया जिससे वे और अधिक शक्तिशाली हो गए। उसी समय इन्द्र ने पवनदेव से अपने द्वारा की गई गलती के लिये क्षमा मांगी और कहा- मेरे वज्र के प्रकोप से इस बालक की ठोड़ी टेढ़ी हो गई है। अत: मैं इसे यह आशीर्वाद देता हूँ कि यह पूरे विश्व में हनु (ठोड़ी) मान के नाम से प्रख्यात होगा।
और इस तरह से केसरीनन्दन का नाम हनुमान पड़ा।
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