Govardhan Parvat – गोवर्धन पर्वत, ब्रज की छोटी सी पहाड़ी मात्र है, लेकिन इसे गिरिराज (पर्वतों का राजा) भी कहा जाता है क्योंकि इसे भगवान कृष्ण के समय का एक मात्र स्थाई व स्थिर अवशेष माना जाता है और ऐसी मान्यता है कि यद्धपि यमुना नदी पूर्वकाल में समय-समय पर अपनी धारा बदलती रही है, लेकिन गोवर्धन अपने मूल स्थान पर ही अविचलित रुप में विधमान रहा है। इसलिए इसे भगवान कृष्ण के प्रतीक स्वरुप भी माना जाता है और इसी रुप में इसकी पूजा भी की जाती है।
दीपावली का त्यौहार मनाने के बाद दूसरे दिन शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को गोवर्धन पूजा की जाती है। इस दिन को अन्नकूट के नाम से भी जाना जाता है। इसी दिन दैत्यराज बलि और मार्गपाली का भी पूजन किया जाता है। इस दिन का भारतीय लोकजीवन में त्यौहार के रूप में काफी महत्व है।
इस पर्व का प्रकृति और मानव के साथ सीधा सम्बन्ध है क्योंकि हिन्दु धर्म के शास्त्रों में बताया गया है कि जैसे नदियों में गंगा सबसे पवित्र नदी मानी जाती है, उसी प्रकार से सभी प्रकार के पशुओं में गाय को सबसे पवित्र पशु माना जाता है और इसीलिए इस दिन गोवर्धन पूजा के साथ गोधन यानी गायों की पूजा की जाती है और माना जाता है कि जिस प्रकार से देवी लक्ष्मी, सुख और समृद्धि प्रदान करके घर, व्यवसाय को सम्पन्न कर देती हैं, उसी प्रकार से गौ माता भी अपने दूध से स्वास्थ्य रूपी धन प्रदान करती है। इसलिए हिन्दु धर्म में गाय को भी देवी लक्ष्मी के समान माना जाता है।
गौ संपूर्ण मानव जाति के लिए पूजनीय और आदरणीय है और गायों के प्रति श्रद्धा प्रकट करने के लिए ही कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा के दिन गोवर्धन की पूजा की जाती है, गाय, बैल को स्नान कराया जाता है, उन्हे रंग लगाकर उनके गले में नई रस्सी डाली जाती है तथा गुड और चावल मिलाकर खिलाया जाता है।
क्यों की जाती है गोवर्धन पूजा ?
हिन्दु धर्म में दीपावली के अगले दिन की जाने वाली गोवर्धन पूजा करने के संदर्भ में भी एक पौराणिक कथा प्रचलित है जिसके अनुसार-
एक समय देवराज इन्द्र को स्वयं पर अत्यधिक अभिमान हो गया कि यदि वे वर्षा न करें, तो सम्पूर्ण पृथ्वी से जीवन का नाश हो जाए। इसलिए देवराज इन्द्र के इस अभिमान को चूर करने के लिए भगवान श्री कृष्ण ने एक लीला रची।
एक दिन भगवान श्री कृष्ण ने देखा कि सभी ब्रजवासी किसी पूजा को सम्पन्न करने के लिए विभिन्न प्रकार के उत्तम व स्वादिष्ट पकवान बना रहे थे। यह देखकर बालक कृष्ण के मन में प्रश्न आया और उन्होने बडे ही भोलेपन से अपनी मईया यशोदा पूछा- मईया… आज इतने पकवान क्यों बनाए जा रहे हैं?
यशोदा ने जवाब दिया- लल्ला… हम वृत्रासुर को मारने वाले मेघदेवता देवराज इन्द्र की पूजा करने के लिए अन्नकूट की तैयारी कर रहे हैं, जिसे इन्दोज यज्ञ भी कहते है।
कृष्ण के मन में फिर से प्रश्न उठा कि- मईया… सभी ब्रजवासी देवराज इन्द्र की ही पूजा क्यों करने वाले हैं? पृथ्वी पर और भी तो कई देवी-देवता है, उनकी पूजा क्यों नहीं करते?
तब मईया ने प्रत्युत्तर दिया- क्योंकि देवराज इन्द्र ही जल के देवता हैं और अगर वे हमारे द्वारा की गई इस पूजा से प्रसन्न हो गए, तो वे वर्षा करेंगे, जिससे हमारे खेतों में अन्न की पैदावार होगी और खेतों की घासों से हमारी गायों को चारा मिलेगा।
यह सुनकर भगवान कृष्ण श्री अपनी मईया से बोले- लेकिन मईया… हमारी गायें तो गोवर्धन पर्वत की घास चरकर अपना पेट भरती हैं और इन्द्र में क्या शक्ति है जो वर्षा करेंगे। वर्षा तो हमारे इस शक्तिशाली गोवर्धन पर्वत के कारण से होती है क्योंकि वर्षा के बादल इसी गोवर्धन पर्वत से टकराकर ब्रज में बरस जाते हैं। यदि गोवर्धन पर्वत न होता, तो देवराज इन्द्र भी ब्रज में वर्षा नहीं कर सकते थे। इस तरह से तो हमें गोवर्धन पर्वत की ही पूजा करनी चाहिए।
और गोवर्धन पर्वत तो हमें दिखाई भी देता है, देवराज इन्द्र तो हमें कभी दर्शन भी नहीं देते हैं और यदि किसी वर्ष उनकी पूजा न की जाए, तो वे हम पर क्रोधित भी हो जाते हैं। इसलिए ऐसे अहंकारी देवता की पूजा तो करनी ही नहीं चाहिए।
जब कृष्ण भगवान ने सभी ब्रजवासियों से ऐसी बातें कही, तो उनकी लीला और माया के कारण सभी देवराज इन्द्र के बदले गोवर्धन पर्वत की पूजा करने लगे।
कुछ ही देर में वहाँ नारद मुनि इन्द्रोज यज्ञ देखने के लिए पहुंच गए, परंतु उन्होने जब देखा कि ब्रजवासी इस वर्ष देवराज इन्द्र के स्थान पर गोवर्धन पर्वत की पूजा कर रहे हैं तो उन्होने ब्रजवासियों से पूछा कि- ब्रजवासी… इस वर्ष आप सभी जल के देवता देवराज इन्द्र की पूजा के स्थान पर गोवर्धन पर्वत की पूजा क्यों कर रहे हैं? क्या इस वर्ष आप सभी को वर्षा की जरूरत नहीं है?
तब ब्रजवासियों ने नारद मुनि से कहा कि- नहीं महाराज… ऐसा नहीं है। अगर हमें वर्षा की जरूरत न होती, तो हम ये पूजा ही क्यों करते?
तब नारद मुनि ने ब्रजवासियों से पूछा- तो आप सभी लोग देवराज इन्द्र के स्थान पर गोवर्धन पर्वत की पूजा क्यों कर रहे हैं?
इस सवाल के जवाब में सभी ब्रजवासियों ने नारद मुनि से कहा- महाराज… हम भगवान श्री कृष्ण के कहने पर इन्द्रोज यज्ञ के स्थान पर गोवर्धन पर्वत की पूजा कर रहे हैं।
यह सुनकर नारदमुनि सीधे ही इन्द्रलोक पहुंचे और उदास होकर बोले- हे देवराज इन्द्र… आप यहाँ सुख-शांति से निश्चिंत होकर बैठे हैं, और उधर ब्रजवासियों ने श्री कृष्ण के कहने पर आपकी पूजा करने के स्थान पर गोवर्धन पर्वत की पूजा कर रहे हैं।
यह सुनकर देवराज इन्द्र अत्यधिक क्रोधित हो गए और मन ही मन इसे अपना अपमान समझकर मूसलाधार वर्षा शुरू कर दी ताकि पूरा ब्रज तहस-नहस होकर नष्ट हो जाए। इतनी भयानक प्रलय के समान वर्षा होती देख सभी ब्रजवासियों को लगने लगा कि हमने श्री कृष्ण के कहने पर इस वर्ष जल के देवता देवराज इन्द्र पूजा नहीं की, इस कारण से वे हम ब्रजवासियों पर नाराज हो गए हैं और इसीलिए वे संपूर्ण ब्रज को जलमग्न करने हेतु इतनी तेज वर्षा कर रहे हैं। ऐसा सोंचकर सभी ब्रजवासियों भगवान श्री कृष्ण को कोसते हुए कहने लगे कि- सब तुम्हारी बात मानने के कारण हुआ है। न हम तुम्हारी बात सुनते, न ही देवराज इन्द्र क्रोधित होते और न ही ऐसी भयंकर वर्षा होती।
जब सभी ब्रजवासी भगवान श्री कृष्ण पर ही आरोप लगाने लगे तो उन्होने अपनी मुरली को अपनी कमर में डालकर अपनी कनिष्ठा उंगली पर पूरा गोवर्धन पर्वत ही उठा लिया और सभी ब्रजवासियों से कहा कि सभी लोग अपनी गायों और बछडों सहित इसकी नीचे शरण ले लीजिए।
जब देवराज इन्द्र ने श्री कृष्ण की यह लीला देखी तो उन्हें और अत्यधिक क्रोध आ गया कि ये अदना सा बालक मुझसे प्रतिस्पर्द्धा कर रहा है। फलस्वरूप देवराज इन्द्र ने वर्षा की गति को ओर तेज कर दिया। इन्द्र का मान मर्दन करने के लिए भगवान श्री कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से कहा-आप गोवर्धन पर्वत के ऊपर रहकर वर्षा की गति को नियंत्रित करें।
और शेषनाग से कहा कि- आप मेड़ बनाकर पानी को पर्वत की ओर आने से रोकें।
श्री कृष्ण भगवान के सुदर्शन चक्र और शेषनाग की सहायता से ब्रजवासियों पर वर्षा की एक बूंद भी न गिर सकी। यह देखकर देवराज इन्द्र को बडा आश्चर्य हुआ। उनको लगा कि- यह इतना छोटा सा बालक, जो कि मेरा सामना कर रहा है, कोई सामान्य मनुष्य तो हो ही नहीं सकता है। इसलिए वे ब्रह्मा जी के पास गए और सब वृतान्त बताया।
तब ब्रह्मा जी ने देवराज इन्द्र से भगवान श्री कृष्ण के बारे में बताया कि- देवराज इन्द्र… आप जिस कृष्ण की बात कर रहे हैं, वह स्वयं भगवान विष्णु के साक्षात अंश है।
ब्रह्मा जी के मुख से यह सुनकर देवराज इन्द्र को अपने कृत्य पर बहुत लज्जा आयी। उन्होंने ने उसी सयम उस मूसलाधार वर्षा को रोक दिया और सीधे ही ब्रज में जा पहुंचे व भगवान श्री कृष्ण से कहा कि- मैंने आपको पहचानने में भूल कर दी और अहंकारवश ये सब कर दिया जो नहीं करना था। आप दयालु हैं, कृपालु हैं, इसलिए मेरे द्वारा की गई भूल को क्षमा करें।
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माना जाता है कि इन्द्रदेव ने लगातार सात दिनों तक वर्षा की थी और जिस दिन भगवान कृष्ण ने गाेवर्धन पर्वत को फिर से यथास्थान नीचे रखा था, उस दिन कार्तिक शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा थी। इसलिए भगवान कृष्ण के इस कृत्य को याद रखने के उदृेश्य से ही दीपावली के दूसरे दिन गाेवर्धन पूजा की जाती है।
कैसे करते हैं गोवर्धन पूजा ?
दीपावली के अगले दिन गोवर्धन पर्व के रूप में हिंदू धर्मावलंबी घर के आंगन में गाय के गोबर से गोवर्धननाथ जी की प्रतिमूर्ति अथवा गोवर्धन पर्वत बनाकर जल, मौली, रोली, चावल, फूल दही तथा तेल का दीपक जलाकर पूजा करते है तथा परिक्रमा करते हैं। इसके बाद ब्रज के साक्षात देवता माने जाने वाले गिरिराज पर्वत को प्रसन्न करने के लिए अन्नकूट का भोग लगाया जाता है।
चूंकि, इस दिन को गायों की पूजा का दिन भी माना जाता है, इसलिए इस दिन गाय बैल आदि पशुओं को स्नान कराकर फूल माला, धूप, चन्दन आदि से उनका पूजन करते हैं, फिर मिठाई खिलाकर उनकी आरती उतारी जाती है और अन्त में उनकी प्रदक्षिणा की जाती है व माना जाता है कि गायों की प्रदक्षिणा करना, गोवर्धन पर्वत की प्रदक्षिणा करने के समान ही फलदायक होता है।
क्यों करते हैं गोवर्धन परिक्रमा ?
सभी हिंदूजनों के लिए इस पर्वत की परिक्रमा का विशेष महत्व है। वल्लभ सम्प्रदाय के वैष्णवमार्गी लोग तो अपने जीवनकाल में इस पर्वत की कम से कम एक बार परिक्रमा अवश्य ही करते हैं क्योंकि वल्लभ संप्रदाय में भगवान कृष्ण के उस स्वरूप की पूजा-अर्चना, आराधना की जाती है, जिसमें उन्होंने बाएं हाथ से गोवर्धन पर्वत उठा रखा है और उनका दायां हाथ कमर पर है।
इस पर्वत की परिक्रमा के लिए समूचे विश्व से वल्लभ संप्रदाय के लोग, कृष्णभक्त और वैष्णवजन आते हैं। यह पूरी परिक्रमा 7 कोस अर्थात लगभग 21 किलोमीटर है। परिक्रमा मार्ग में पड़ने वाले प्रमुख स्थल आन्यौर, जातिपुरा, मुखार्विद मंदिर, राधाकुंड, कुसुम सरोवर, मानसी गंगा, गोविन्द कुंड, पूंछरी का लौठा, दानघाटी इत्यादि हैं जबकि गोवर्धन में सुरभि गाय, ऐरावत हाथी तथा एक शिला पर भगवान कृष्ण के चरण चिह्न हैं। इसीलिए कृष्ण भक्ताें के लिए इस पर्वत की परिक्रमा का महत्व और भी अधिक बढ जाता है।
परिक्रमा की शुरुआत दो अलग सम्प्रदायों के लोग दो अलग स्थानों से करते हैं। वैष्णवजन अपनी परिक्रमा की शुरूआत जातिपुरा से करते हैं, जबकि और अन्य सामान्यजन मानसी गंगा से करते हैं और परिक्रमा के अन्त पर पुन: वहीं पहुंचते हैं। पूंछरी का लौठा में दर्शन करना आवश्यक माना गया है, जो कि राजस्थान क्षैत्र के अन्तर्गत आता है और ये माना जाता है कि यहां आने से ही इस बात की पुष्टि होती है कि आपने गोवर्धन परिक्रमा की है।
वैष्णवजनों के अनुसार गिरिराज पर्वत पर भगवान कृष्ण का जो मंदिर है उसमें भगवान कृष्ण शयन करते हैं। यहीं मंदिर में एक गुफा भी है, जिसके बारे में मान्यता ये है कि इस गुफा का अन्त राजस्थान स्थित श्रीनाथद्वारा मंदिर पर होता है।
गोवर्धन परिक्रमा से सम्बंधित अधिक जानकारी के लिए आप इस पोस्ट को भी देख सकते हैं।
ऐसी मान्यता है कि जो भी ईच्छा मन में रखकर इस गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा की जाती है, वह ईच्छा जरूर पूरी होती है। इसीलिए सामान्यत: लोग उस स्थिति में गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा करते हैं, जब उनकी कोई ईच्छा किसी भी अन्य तरीके से पूरी नहीं होती। इसके अलावा हिन्दु धर्म के लोगों का ये भी मानना है कि चारों धाम की यात्रा न कर सकने वाले लोगों को भी कम से कम इस गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा जरूर करनी चाहिए, जिससे मृत्यु के पश्चात सद्गति की प्राप्ति होती है।
कुछ भी हो जाए, इस दिन खुश रहें।
ऐसी मान्यता है कि यदि गोवर्धन पूजा के दिन कोई व्यक्ति किसी भी कारण से दु:खी या अप्रसन्न रहता है, तो वर्ष भर दु:खी ही रहता है। इसलिए कुछ भी हो जाए, इस दिन प्रसन्न रहने का ही प्रयास करें और इस दिन गोवर्धन पर्व के उत्सव को प्रसन्नतापूर्वक मनाएें।
साथ ही ऐसा भी माना जाता है कि इस दिन स्नान से पूर्व पूरे शरीर में सरसों का तेल लगाकर स्नान करने से आयु व आरोग्य की प्राप्ति होती है तथा दु:ख व द रिद्रता का नाश होता है।
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